कोली नृत्य
कोली नृत्य महाराष्ट्र के प्रसिद्ध लोक नृत्यों में से एक है। जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है, यह नृत्य कोली जाति के मछुआरों द्वारा किया जाता है। इन लोगों की रंग बिरंगी पोशाक, खुशमिज़ाज, व्यक्तित्व और विशिष्ट पहचान उनके नृत्य में भी झलकती है। महिलाएँ और पुरुष दोनों ही इस नृत्य में भाग लेते हैं। इस नृत्य में पुरुष और महिलाएँ दो समूहों में या जोड़ों में बंट कर नृत्य करते हैं।
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सत्रिया नृत्य
15वीं शताब्दी ईस्वी में असम के महान वैष्णव संत और सुधारक श्रीमंत शंकरदेव द्वारा सत्रिया नृत्य को वैष्णव धर्म के प्रचार हेतु एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में परिचित कराया गया । बाद में यह नृत्य शैली एक विशिष्ट नृत्य शैली के रूप में विकसित व विस्तारित हुई । यह असमी नृत्य और नाटक का नया खजाना, शताब्दियों तक सत्रों द्वारा एक बड़ी प्रतिज्ञा के साथ विकसित और संरक्षित किया गया है । ( अर्थात् वैष्णव मठ या विहार) इस नृत्य शैली को अपने धार्मिक विचार और सत्रों के साथ जुड़ाव के कारण उपयुक्त ढंग से सत्रिया नाम दिया गया ।
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हिन्दू धर्म का संगीत से नाता क्यों?
हिन्दू धर्म का नृत्य, कला, योग और संगीत से गहरा नाता रहा है। हिन्दू धर्म मानता है कि ध्वनि और शुद्ध प्रकाश से ही ब्रह्मांड की रचना हुई है। आत्मा इस जगत का कारण है। चारों वेद, स्मृति, पुराण और गीता आदि धार्मिक ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को साधने के हजारोहजार उपाय बताए गए हैं। उन उपायों में से एक है संगीत। संगीत की कोई भाषा नहीं होती। संगीत आत्मा के सबसे ज्यादा नजदीक होता है। शब्दों में बंधा संगीत विकृत संगीत माना जाता है।
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शुद्ध स्वर
सा, रे, ग, म, प, ध, नि शुद्ध स्वर कहे जाते हैं। इनमें सा और प तो अचल स्वर माने गए हैं, क्योंकि ये अपनी जगह पर क़ायम रहते हैं। बाकी पाँच स्वरों के दो-दो रूप कर दिए गए हैं, क्योंकि ये अपनी जगह पर से हटते हैं, इसलिए इन्हें कोमल व तीव्र नामों से पुकारते हैं। इन्हें विकृत स्वर भी कहा जाता है।
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अलंकार
कुछ विशेष नियमो से बँधे हुए स्वर-समुदाय को अलंकार या पल्टा कहते है ।
किसी विशेष वर्ण-समुदाय अथवा क्रमानुसार तथा नियमबद्ध स्वर -समुदायों को अलंकार कहते है । अलंकार को पल्टा भी कहकर पुकारते है । इस में एक क्रम रहता है जो स्वरों को चार वर्णो में अर्थात स्थायी, आरोही, अवरोही या सञ्चारि में विभाजन करता है । अलंकार के आरोह तथा अवरोह ऐसे दो विभाग होते है तथा जो क्रम एक अलंकार के आरोह में होता है उसका उल्टा क्रम उसके अवरोह में होना आवश्यक है,
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राग परिचय
हिंदुस्तानी एवं कर्नाटक संगीत
हिन्दुस्तानी संगीत में इस्तेमाल किए गए उपकरणों में सितार, सरोद, सुरबहार, ईसराज, वीणा, तनपुरा, बन्सुरी, शहनाई, सारंगी, वायलिन, संतूर, पखवज और तबला शामिल हैं। आमतौर पर कर्नाटिक संगीत में इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों में वीना, वीनू, गोत्वादम, हार्मोनियम, मृदंगम, कंजिर, घमत, नादाश्वरम और वायलिन शामिल हैं।