गजल
यह अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विधा है जो बाद में फ़ारसी, उर्दू, नेपाली और हिंदी साहित्य में भी बेहद लोकप्रिय हुइ। संगीत के क्षेत्र में इस विधा को गाने के लिए इरानी और भारतीय संगीत के मिश्रण से अलग शैली निर्मित हुई।
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नाट्य-शास्त्र
सामवेद के अतिरिक्त भरत मुनि का ‘नाट्य-शास्त्र’ संगीत कला का प्राचीन विस्तरित ग्रंथ है। वास्तव में नाट्य-शास्त्र विश्व में नृत्य-नाटिका (ओपेरा) कला का सर्व प्रथम ग्रन्थ है। इस में रंग मंच के सभी अंगों के बारे में पूर्ण जानकारी उपलब्द्ध है तथा संगीत की थि्योरी भी वर्णित है। भारतीय संगीत पद्धति में ‘स्वरों’ तथा उन के परस्परिक सम्बन्ध, ‘दूरी’ (इन्टरवल) को प्राचीन काल से ही गणित के माध्यम से बाँटा और परखा गया है। नाट्य-शास्त्र में सभी प्रकार के वाद्यों की बनावट, वादन क्रिया तथा ‘सक्ष्मता’ (रेंज) के बारे में भी जानकारी दी गयी है।
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अचल स्वर
सा और प को अचल स्वर माना जाता है। जबकि अन्य स्वरों के और भी रूप हो सकते हैं। जैसे 'रे' को 'कोमल रे' के रूप में गाया जा सकता है जो कि शुद्ध रे से अलग है। इसी तरह 'ग', 'ध' और 'नि' के भी कोमल रूप होते हैं। इसी तरह 'शुद्ध म' को 'तीव्र म' के रूप में अलग तरीके से गाया जाता है।
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वाद्ययन्त्रों के प्रकार
भारतीय संगीत में प्रयुक्त होने वाले वाद्ययन्त्रों (साजों) में अष्टांगों में से सात अंगों को व्यक्त करने की क्षमता होनी चाहिये। सुरीले साजों में गमक, मींड, तान के खटके, यथास्थान स्वर, आलाप आदि अंग पूर्ण रूप में अभिव्यक्त होना चाहिये। भारतीय संगीत में 5 प्रकार के वाद्य प्रचलित हैं - तत् वाद्य, तंतु वाद्य, सुषिर वाद्य, अवनद्घ वाद्य, घन वाद्य।
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सम
सम ताल के आरंभ को कहते हैं। सम सदैव किसी भी ताल की १ली मात्रा पर आती है। और इसके आने पर गायन-वादन में स्वाभाविक जोर व आकर्षण पैदा हो जाता है। सम यदि अपने स्थान पर नहीं आई तो सारा मजा फीका हो जाता है। और साधारण श्रोताओं की समझ में आ जाता है कि कहीं कुछ बिगड़ गया है।
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राग परिचय
हिंदुस्तानी एवं कर्नाटक संगीत
हिन्दुस्तानी संगीत में इस्तेमाल किए गए उपकरणों में सितार, सरोद, सुरबहार, ईसराज, वीणा, तनपुरा, बन्सुरी, शहनाई, सारंगी, वायलिन, संतूर, पखवज और तबला शामिल हैं। आमतौर पर कर्नाटिक संगीत में इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों में वीना, वीनू, गोत्वादम, हार्मोनियम, मृदंगम, कंजिर, घमत, नादाश्वरम और वायलिन शामिल हैं।