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സംഗീത ശിക്ഷണം പ്രാണാലിയും വാസ്തവികതയും

സംഗീത ശിക്ഷണം പ്രാണാലിയും വാസ്തവികതയും

 

മാനവീയ ജീവൻ യഹ് വിദ്യാഭ്യാസം കാ ദൂസര നാമം ഉണ്ട്,വ്യക്തി അപനേ ജനം ലേകർ മരണം തകശ്ചാഹ് അതെ,
വർത്തമാന സമയത്തെ കുറിച്ച് ഞാൻ പറയുന്നുണ്ട്. साथ समय हैं डा विशेष का, प्राच काल में गुरु कुरु यिरु परचलन में, गुरु गृह में विद्यार्थी रहते र वर्ष गुरु की सेवा कर कर कर कराप्त करते, समय बदला हमारे देश में ശിക്ഷ പ്രണാലി കാ ആഗമന ഹുയാ ഭ ഹോ ഗയാ,ഭാരതീയ ശാസ്ത്ര സംഗീതം മുതൽ ഈ വിദ്യാ ഗ്രഹണം തക ഗുരു വിദ്യാഭ്യാസ പ്രണാലി ഹേ പ്രചലിത തീ,പ്രാചീന ഭാരതത്തിൻ്റെ ഇതിഹാസത്തെ കുറിച്ച് പറയൂ മഹാരാജ് ചന്ദ്ര ഗുപ്ത വിക്രമാദിത്യഭംഗിയുണ്ട് ഗീത ആചാര്യോ കോ വിദ്യാലയോ മെം ഉച്ച വേതൻ ദേക്കർ ശിക്ഷണം ദേനെ ഹേതു . തക്ഷശില നാളന്ദയുടെ വിശ്വവിദ്യാലയത്തിലെ ഭി സംഗീതത്തിൻ്റെ അളഗ വിഭാഗത്തിൻ്റെ കഥ, കഥകൾ ആനസിഹ് തോമർ നേ ഭി ധ്രുപദ് ഗായകി ശിക്ഷാ ദേനെ ഹേതു വിദ്യാലയം സ്ഥാപിക്കുന്നു ഓം കോ ഉതനാ യശ് കഭി നഹി മിലാ,ഗുരു ശിഷ്യ വിദ്യാഭ്യാസ പ്രണാലി ഹീ फलती रही, ब्रिटिश काल में में में में में मिद्वानों का जनम हुआ जिनके प्रयत्नके ने भारत्नों ने भारत्नों के भारत्नों को अत्यन्त उचाईयो पर पंहुचा दिया, येदे दे देवदूहू, मसीहा थे दिडंबर विष्णु दिगंबर विडित दंडित विडित विष्णु विष्णु विष्णु विष्णु विष्णु नारायणुण പണ്ഡിറ്റ് ഭാതഖണ്ഡേ വ്പണ്ഡിത പല്‌സ്‌കർ അഥക് പ്രയാസോം സേ ഭാരതീയ സംഗീതം വിദ്യാലായീ പാഠങ്ങൾ ച്ലിത വ് സുപ്രസിദ്ധ ഹുഇ,ഇസ്സെ സംഗീത ശിക്ഷണം കോ ഉച്ച ദര്ജ മിലാ,വ ഗൃഹത്തിൽ രഹ കർ ഭി വർഷോ തക് അച്ഛി ശിക്ഷാ സേ വഞ്ചിത രഹ ജാതേ തെ,ഉം സരഹെ സംഗീത ശിക്ഷണം പ്രാപ്ത ഹോനേ ലഗാ ।

परट संगीत शिक्षण पध्धति की विद्यालयीन के उद्यालयीन के उद्यालयीन के उदयय कारण शिक्देश्य में अन्तर गया, गुरु पर्परा में जहा लक्ष्य संगीतकार का निर्माण का निर्माण होता था, वहा विद्यालयीन संगीत पध्धति में
की समझ रसिक रसिक वाले रसिक निर्माण की हो यया निर्माण गया निर्माण की विद्यालयो की स्थापालयो की स्थापालयो की स्थापालयो की स्थापना के पीछे मात्र इतना ही उद्देश्य , संगीत शिक्षण प्दति की स्थापति की समय भी विद्यालयो के द्वारा गुरुक व् गुरुओ व् जानकारों की ही का ही مेश्य ,പരന്തു ജെയ്‌സെ സംഗീതം പഠിപ്പിക്കുന്നു ജാനേ വാലി സംഗീതം പഠിക്കുക ശിക്ഷണത്തിൻ്റെ പ്രതിലോകം വായിച്ചു നോക്കുക സംഗീത ശിക്ഷണം പ്രാണാലി നേ ശാസ്ത്രീയ സംഗീതം താനാസെനോ കി ഉത്പത്തി ഇല്ല വരൻ കാണാൻ.

മൂലത്: സംഗീതം ഒരു കലാം, കൂടാതെ കിസി ഭി കലാ കോ ശിക്ഷണം അതിൻ്റെ കലാപ്രകടനങ്ങൾ ഗാവ് കി ജരുത് ഹോതി ഹയിം,വിദ്യാലയ സംഗീത പരിശീലനം പ്രാണാലിയിൽ നിന്ന് വ്യത്യസ്തമാണ് ശിക്ഷണം പ്രാപ്‌തമാക്കിയ ജിൻഹെം അവരുടെ കലാ പ്രതിഭ പ്രേം വിശേഷങ്ങൾ ലഗാവ് നഹീ ഥാ,പരന്തു യഃ കലാ പസന്ദ് തി,ഗാന ഗുണഗുണാന ഉനക ഛന്ദ താ,കുറകഥ വാഹവാഹി ലൂട്ടൻ ഇച്ഛിത് താ ഹേ (ഞാൻ വിദ്യാലായ സംഗീത വിദ്യാഭ്യാസം സുരവതി ദൗർ വരെ അല്ല തൻഖാഹ് മിൽ ജാതി ജിസസെ ഉനകെ പരിവാരം ഭരണ പോഷണം ആശാനി സേ ഹോ.ജാത, ഇസ ण देने में अधिक रूची नही रही,വഹ ഒരു കര്തവ്യ ഭർ रह गया जिसकी पूर्ति उन्हें रोज़ दिन में दो रटे फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला फला रागी करनी करम इस शिक्रम शिक्रम शिक्रम शिक्षण अें इसलिए खा गया था ताकि था समय समय समय में उचित शिक्षण ले, किंतु की पाठ्यक्रम की पाठ्यक्रम की पाठ्यक्रम की पाठ्यक्रम की पाठ्यक्रम की पाठ्यक्रम की रारमार, शास्त्र की जानकारी की जानकारी की जानकारी की जानकारी की जानकारी की जानकारी की സേ സംഗീത ശിക്ഷണം ബഹുത നകാരാത്മക് അസർ പദ,സ്ഥി യഹ് ആണ് സുർ മെം നഹി ഗാ സകതാ ഒരു രാഗം കാ പ്രസ്തുത കാരണം തീക് സേ നഹി കർ സകതാ,ഡിഗ്രി മിൽ ജാതി ഹും ഒപ്പം ही तरह शिश्य तैयार करत हैं इसे शास्त्रीय संगीत को बहुत नुकसान।

സംഗീതം ഒരു ശ്രവണ വിദ്യയാണ് ഇസക്കെ ബാരേ മെം കഹ ജാത ഹൈം-"നാദ കർമ്മം, സാഗരം നപാർ "അർഥാത് നാദ് കാ സാഗർ അപാര ഹും മാതാ സരസ്വതി ഭി ഇസകാ പാര നഹി ജാനതി ആനാ ഗയാ ഹാം,അത്: ഇസക വിദ്യാഭ്യാസം ഭി ശ്രേഷ്ഠ ഗുരുയോ ദ്വാരാ ഗുണീ ശിഷ്യോം കാവോ ദേനാ ഭവം ഊർണ്ണ സമർപ്പണ പ്രേമത്തിൻ്റെ സാത്ത്. അഗർ കിസി കോ സംഗീതം ഉണ്ട് സാധന കർനാ ആവശ്യം ഉണ്ട്,കൈ ബഡേ ബഡേ കലാകാരോം കഏ ഭീ യഹി മത് ഹയ്ം.
ആജ് ദേശ് ഭർ ഞാൻ കൈ ഇസി സ്ഥാപനം ഉണ്ട് ഐടിസി സംഗീത റിസർച്ച് അക്കാദമി,ധ്രുപദ് സ്ഥാപനം ഭോപാൽ,നേഷൻ സെൻറർ ഫോർ ത്സ് ആദി കാ നാമം ഉല്ലേഖനിയം ഉണ്ട്.


मानवीय जीवन यह शिक्षण का दूसरा नाम हैं,व्यक्ति अपने जनम से लेकर मरण तक कुछ न कुछ सीखता रहता हैं,
वर्तमान समय के बारे में कहे तो यह समय हैं ,विशेषघ्य्ता का,विकास का और विद्वत्ता का। साथ ही समय हैं डिग्री का,प्रमाण पत्रों का और विशेष शिक्षण पद्दतियों का,प्राचीन काल में भारत में गुरु शिक्षण परम्परा प्रचलन में थी,गुरु गृह में विद्यार्थी रहते और वर्षो वर्ष गुरु की सेवा कर घ्यान प्राप्त करते ,समय बदला हमारे देश में विद्यालयीन शिक्ष्ण प्रणाली का आगमन हुआ,इस तरह की शिक्षण प्रणाली से विद्या अर्जन करना सहज और सुलभ हो गया,भारतीय शास्त्रीय संगीत की बात करे तो इस विद्या को ग्रहण करने हेतु ब्रिटिशकाल तक गुरु शिक्षण प्रणाली ही प्रचलित थी,प्राचीन भारत के इतिहास के पन्ने उलट कर देखे तो घ्यात होता हैं की महाराज चंद्र गुप्त विक्रमादित्य के समय के राजभवनों में भी संगीत आचार्यो को विद्यालयो में उच्च वेतन देकर शिक्षण देने हेतु नियुक्त किया जाता था । तक्षशिला व् नालंदा के विश्वविध्यालायो में भी संगीत के अलग विभाग हुआ करते थे,ग्वालियर के महाराज मानसिह तोमर ने भी ध्रुपद गायकी की शिक्षा देने हेतु विद्यालय की स्थापना की थी.परन्तु इन सब प्रयत्नों को उतना यश कभी नही मिला,गुरु शिष्य शिक्षण प्रणाली ही फलती फूलती रही,ब्रिटिश काल में भारतीय संगीत जगत में दो ऐसे गुनीजनो विद्वानों का जनम हुआ जिनके प्रयत्नों ने भारतीय संगीत को अत्यन्त उचाईयो पर पंहुचा दिया,ये दो देवदूत, मसीहा थे पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर और पंडित विष्णु नारायण भातखंडे। पंडित भातखंडे व् पंडित पलुस्कर के अथक प्रयासों से भारतीय संगीत की विद्यालयीन शिक्षण प्रणाली सुप्रच्लित व् सुप्रसिध्ध हुई,इससे संगीत शिक्षण को उच्च दर्जा मिला,व् जो विद्यार्थी गुरु गृह में रह कर भी वर्षो तक अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाते थे,उन्हें सरलता से संगीत शिक्षण प्राप्त होने लगा ।

परन्तु संगीत शिक्षण पध्धति की विद्यालयीन पध्धति के उदय के कारण संगीत शिक्षण के उद्देश्य में अन्तर आ गया,गुरु शिष्य परम्परा में जहा लक्ष्य संगीतकार का निर्माण होता था ,वहा विद्यालयीन संगीत पध्धति में लक्ष्य
संगीत की समझ रखने वाले रसिक श्रोता निर्माण करना हो गया,ऐसा नही था की विद्यालयो की स्थापना के पीछे मात्र इतना ही उद्देश्य था,विद्यालयीन संगीत शिक्षण पद्दति की स्थापना के समय भी विद्यालयो के द्वारा गुनिकलाकारो,गुरुओ व् जानकारों की निर्मिती का ही उद्देश्य था,परन्तु जैसे जैसे संगीत की शिक्षण पध्धति में बदलाव आया वैसे वैसे ही विद्यालयो में दी जाने वाली संगीत की शिक्षा के स्तर,शिक्षण ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों के ग्राह्यता के स्तर व् इस शिक्षण के प्रति लोगो की रूचि में अन्तर आने लगा,इस कारण विद्यालयीन संगीत शिक्षण प्रणाली ने शास्त्रीय संगीत के तानसेनो की उत्पत्ति नही वरन कानसेनो की ही उत्पत्ति की।

मूलत: संगीत एक कला हैं,और किसी भी कला को सिखने के लिए उस कला के प्रति प्रेम समर्पण और गूढ़ लगाव की जरुरत होती हैं,विद्यालयीन संगीत सिक्ष्ण प्रणाली में ऐसे विद्यार्थियों ने बहुतायत में शिक्षण प्राप्त किया जिन्हें उस कला के प्रति प्रेम व् विशेष लगाव नही था,परन्तु यह कला पसंद थी,गाना गुनगुनाना उनका छंद था,कुछ थोड़ा सा गाकर परिजनों की वाहवाही लूटना उन्हें इच्छित था,दूसरा यह हुआ की जो इस प्रणाली में जो शिक्षक रहे (मैं विध्यालयिन संगीत शिक्षण के सुरवाती दौर की यहाँ बात नही कर रही )उन्हें संगीत विद्या का दान करना यह एकमात्र साध्य नही था,उन्हें समय समय पर निश्चित तनखाह मिल जाती जिससे उनके परिवार का भरण पोषण आसानी से हो जाता,इस कारण उनको शिक्षण देने में अधिक रूचि नही रही,वह एक कर्तव्य भर रह गया जिसकी पूर्ति उन्हें रोज़ दिन में दो घंटे फला फला राग सिखा कर करनी हैं,निश्चित पाठ्यक्रम इस शिक्षण पध्धति में इसलिए रखा गया था ताकि विद्यार्थी सही समय में उचित शिक्षण ले सके,किंतु पाठ्यक्रम में रागों की भरमार,शास्त्र की जानकारी की अधिकता से संगीत शिक्षण पर बहुत नकारात्मक असर पड़ा,स्तिथि यह हैं की एम्.ए,करने के बाद भी विद्यार्थी सुर में नही गा सकता एक राग का प्रस्तुति कारण ठीक से नही कर सकता,डिग्री मिल जाने से उसे नौकरी मिल जाती हैं और वह अपने ही तरह के शिष्य तैयार करता हैं इससे शास्त्रीय संगीत को बहुत नुकसान पंहुचा हैं।

संगीत एक श्रवण विद्या हैं इसके बारे में कहा जाता हैं-"नाद को सागर अपार, सरसुती ही जाने न पार "अर्थात नाद का सागर अपार हैं और माता सरस्वती भी इसका पार नही जानती,इस कला को श्रेष्ठ कला माना गया हैं,अत: इसका शिक्षण भी श्रेष्ठ गुरुओ द्वारा गुनी शिष्यों को देना आवश्यक हैं,वह भी पूर्ण समर्पण व् प्रेम के साथ। अगर किसी को संगीतकर बनना हैं तो किसी अच्छे गुरु से कुछ वर्ष तक शिक्षण लेकर उचित रीती से साधना करना आवश्यक हैं,कई बड़े बड़े कलाकारों कए भी यही मत हैं.
आज देश भर मैं कई इसी संस्थाए हैं जो गुरु शिष्य प्रणाली से शिक्षण दे रही हैं इनमे आईटीसी संगीत रिसर्च अकादमी,ध्रुपद संसथान भोपाल,नेशनल सेंटर फॉर परफोर्मिंग आर्ट्स आदि का नाम उल्लेखनीय हैं.