काशी का अविनाशी संगीत
काशी का अविनाशी संगीत
काशी में मोक्षदात्री उत्तरवाहिनी गंगा वरूणा और असि धार को भी सोहं शिवोहं के प्यार से जब जोड़ती है तो इस भावना का मालिक प्रत्येक रंक को आनंद का राजा बनाकर लघुता में गुरूता खोज लेता है। इसीलिए काशी का नागरिक मालिक राजा और गुरू का उपयोग अपनी बोलचाल में रोज करता है। इस नगरी का भोला मन महाश्मशान में भी आनन्द वन का विहारी बन प्रकृति से बना रस लूटता लुटाता है। इस नगरी में सांगीतिक सहचरण का आधार संगीत गंगा है जिसमें अनबूडे, बूडे तिरे, जे बूडे सब अंग-
बनारस की ठुमरी गायकी चंचल शैली के स्थान पर सरल भावाभिव्यक्ति की संवाहिका है, जहां कौशल के स्थान पर राग, पद को प्रमुखता प्रदान कर धीरे-धीरे स्वरों का क्रमिक विकास किया जाता है बनारस पूरे विश्व में एक ऐसी जगह है जहां विशिष्ट और सामान्य में अन्तर कर पाना बड़ा मुश्किल है। काशी में सामान्य जन विशिष्टता को ऐसे आत्मसात् करते हैं कि उनमें बड़ी सरलता से विशिष्टताएं समाहित हो जाती हैं। कजरी विशिष्ट और सामान्य जन-मन की सभी अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करती है और सम्भवतः सम्पूर्ण विश्व की सह ऐसी कलात्मक जन माध्यम है जिसमें कोई भी घटना घटते ही प्रतिबिम्बित होने लगती है। कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, किन्तु दर्पण मूक होता है, जो बायें को दाया और दायें को बाया दिखाता है। वह स्वयं में दुर्बल होता है कि हाथ से छूटते ही चूर-चूर हो जाता है और वही चुभने लगता है। किन्तु कजरी हर काज को पुकारती है, दुलारती है, निखारती और संवारती है। वह चुटकी भी लेती है, खिझाती भी है, रिझाती भी है और अपनी सावनी अदा से भिगाती भी है। इसलिए वह आध्यात्मिकता में कज्जला देवी से जोड़ी जाती है, जो कभी मुनिया हो जाती है तो कभी ढुनमुनिया। वह झोपड़ी से लेकर महल तक, उल्लास से लेकर करुणा तक और तलवार की धार ‘असि‘ से लेकर ‘वरुणा‘ तक, वाराणसी में छायी-समायी है।
बनारस में जब ठुमरी के यहां कुछ होता है तो कजरी पहुंच जाती है-अभिव्यक्ति की थाल सजाए; जब कजरी गाती आती है तो उसे टीका-टिप्पणी ठुमरी समझाती है। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के कार्य प्रयोजन में हिस्सा बंटाती हैं और यांत्रिक होते हुए इस बाजारी युग में संवेदनाओं की मार्मिक थाती इन्हीं से संरक्षण पाती है।
डॉ0 राजेश्वर आचार्य
काशी में संगीत की परंपरा
भूमिका व इतिहास –
काशी की अपनी एक विशेषता है। इस विशेषता में संगीत एक महत्त्वपूर्ण कड़ी रही है। भगवान शिव के ताण्डव नृत्य के अभिव्यक्ति में और उसमें धारण किये हुए डमरू के ध्वनि से संगीत व नृत्य कला का स्रोत माना जा सकता है। संगीत स्थान, समय, भाव व्यक्ति के अंदर तरंगो की उच्च अवस्था से संगीत में अंतर्निहित विभिन्न स्वरूपों की रचना होती है और वो विभिन्न रूपों में भावाभिव्यक्त होती है। काशी में संगीत की परम्परा काफी पुरानी है लेकिन आज का संगीत ध्रुपद, ख्याल, ठुमरी आदि का स्वरूप प्राचीन संगीत का परिष्कृत विकसित स्वरूप है। काशी में प्राचीनकाल से ही संगीत की प्रतिष्ठा ‘गुथिल’ जैसे संगीतज्ञों ने की थी। जातक कथा के अनुसार ये वीणा बजाने में सिद्धहस्थ थे। 14वी सदी में हस्तिमल द्वारा रचित नाटक ‘विक्रांत कौरवम्’ में काशी के संगीत का वर्णन मिलता है। 16वीं सदी में काशी के शासक गोविन्द चन्द्र के समय गणपति अपने कृति ‘माधवानल कामकंदला’ में नाचगाना, कठपुतली का तमाशा और भाँड का विवरण देते हैं। चैतन्य महाप्रभु का भजन-कीर्तन और महाप्रभु वल्भाचार्य का हवेली संगीत आज भी काशी में जीवंत है। इसी काशी में तानसेन के वंशज काशीराज दरबार की शोभा थे। काशी में संगीत साधकों की साधना बहुत पहले से ही चली आ रही है। इसी के फलस्वरूप काशी संगीत की जन्मभूमि और कई साधकों की कर्मस्थली रही है। काशी में धार्मिक वातावरण तथा सांस्कृतिक परिवेश ने संगीत के कलाकारों को अपनी प्रतिभा मांजने एवं प्रदर्शित करने का श्रेष्ठ अवसर प्रदान किया है।
धार्मिक-सांस्कृतिक परम्परा व अन्य कारकों का प्रभाव –
पं0 ओंकारनाथ ठाकुर एवं उनके शिष्य आचार्य नंदन
काशी के मन्दिरों, घाटों, मठों तथा तमाम रियासतों द्वारा बनाये गये हवेली व महल को देख सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि देश के विभिन्न-विभिन्न जगहों से बड़े पैमाने में लोगों का जुड़ाव काशी से रहा है जो आज तक बना हुआ है और इन सभी का निर्माण व योगदान विभिन्न-विभिन्न जगहों के राजाओं शासकों तथा जमींदारों धनिकों एवं सेठों द्वारा हुआ है। साथ ही काशी के राजाओं एवं रईसों द्वारा भी सांस्कृतिक परम्परा में योगदान प्रमुख रहा है। ऐसे वातावरण में परम्पराओं के आदान-प्रदान हुए जिसके फलस्वरूप धार्मिक सत्संग, भजन-कीर्तन तथा अनेक विविध प्रकार के कार्यक्रमों के आयोजन होने लगे जिसमें संगीतज्ञों को अपनी कला को निखारने का अवसर प्रदान हुआ। साथ ही काशी और आस-पास के क्षेत्रों के आम लोगों का जीवन व लोक परम्परा, लोक-जीवन (धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक) समृद्ध रहा है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि निश्चित रूप से संगीत विद्या में संगीतज्ञों को सृजनात्मक रूप देने में सहायक हुआ होगा।
काशी के बगल के क्षेत्र जौनपुर जो मध्यकाल में शर्की वंश द्वारा शासित था। यहाँ के शासकों में संगीत के प्रति विशेष रूचि थी। यहाँ संगीतज्ञों ने कव्वाली को धु्रपद शैली से मिलाकर छोटा ख्याल का सृजन किया। ऐसा उल्लेख है कि जौनपुर के शासकों ने काशी के कथकों को छोटा ख्याल गाने के लिए प्रोत्साहन दिया। ब्रिटिश काल में काशी की संगीत परम्परा और उत्थान इसलिए संभव हुआ क्योंकि राजनैतिक घटनाक्रमों के दबाव में कई राजाओं नवाबों और पेशवाओं को यहाँ भेजा गया। इन लोगों के साथ कई कलाकारों-संगीतज्ञों का आगमन भी हुआ जिससे सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ और यहाँ के संगीत के लिए उस समय एक सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ। इस काल की प्रयोगशीलता या पुनरूज्जीवन ब्रिटिशों के रूचि से उपजी नहीं थी बल्कि उस काल के घटनाक्रमों के कारण से उपजी अवस्था से संगीत को एक नया आयाम मिला।
काशी में शास्त्रीय संगीत को काशी राज दरबार द्वारा प्रोत्साहन –
मीर रूस्तम काशी (बनारस) में सूबेदार बनकर आये थे इनके अंदर भी संगीत व लोक संगीत के प्रति गहरी रूचि थी। इनके पदच्युत होने के पश्चात् काशी वंश की स्थापना हुई। यहाँ महाराजों ने अपने दरबार में अनेक संगीतकारों तथा नर्तकियों को प्रोत्साहन दिया। राजा बलवंत सिंह (1739-1770 ई0) ने अपने यहाँ चतुर बिहारी मिश्र, जगराज दास शुक्ल तथा कलावंत खुशाल खाँ जैसे संगीतज्ञों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया। राजा चेत सिंह (1770-81 ई0) के समय कई गायिकाओं का उल्लेख मिलता है। इनके समय में बुढ़वा मंगल का आयोजन अपने उत्कर्ष पर था। राजा महीपनारायण सिंह (1781-1795 ई0) के दरबार में भी कुछ दिग्गज कलाकारों का वर्णन है जिनमें तानसेन के वंशज भूषत खाँ उनके पुत्र जीवनसाह, अंगुलीकट प्यारे खाँ आदि प्रमुख रहे हैं। राजा उदित नारायण सिंह (1795-1835 ई0) के दरबार में ठाकुर दयाल मिश्र के कुल दीपक प्रसिद्ध-मनोहर (पियरी घराना) की जोड़ी थी। जीवन साह के पुत्र निर्मल साह, तानसेन के ही वंशज जफर खाँ, रबाबी, बासत खाँ, धु्रपदिये प्यारे खाँ, निर्मल साह के दामाद बीनकार उमराव खाँ और उनके भाई मोहम्मद अली, बनारसी टप्पा गायन के प्रर्वतक शोरी मियाँ, गम्मू मियाँ, शिवसहाय जी, शादे खाँ, काली मिर्जा, (कालिदास चट्टोपाध्याय) जाफर खाँ के बेटे सादिक अली जो गाने में ही नहीं बल्कि संगीत का शास्त्रज्ञ ज्ञान भी अद्भुत था। महेश चन्द्र सरकार और मिठाई लाल, (पं0 शिवदास-प्रयाग जी धराना) सआदत अली खाँ (1795-1814 ई0) आदि दरबारी गायक रहे।
महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह (1835-89 ई0) इनमें साहित्य, कला व संगीत में रूचि थी ये विद्वान थे। इनके दरबार में आधुनिक हिन्दी के साहित्यकारों और कवियों का जमावड़ा था। इनका दरबार संगीतकारों से भरा हुआ था। जाफर खाँ, प्यारे खाँ, बासत खाँ अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर दरबार के गायक व कलाकारों ने इन्हीं के दरबार में आश्रय लिया था। महाराजा के दरबार में बासत खाँ के बेटे अली मोहम्मद और मोहम्मद अली वारिस अली, रीवाँ के दौलत खाँ, टप्पा गायक अकबर अली, धु्रपदिये निसार अली, ख्याल गायक सादिक अली, सितारवादक आशिक अली, अलीबख्श, कामता प्रसाद मिश्र, शिवनारायण, गुरू नारायण, ज्वाला प्रसाद मिश्र, शिवदास जी प्रयाग जी, बख्तावर खाँ इनके दरबार की शोभा थे। महाराजा प्रभुनारायण सिंह (1889-1932 ई0) ने अपने दरबार में बसत खाँ के पुत्र व सुविख्यात गायक अली मोहम्मद खाँ (बदइ मियाँ) रामगोपाल, रामसेवक तथा प्रयाग जी जैसे संगीतज्ञों संरक्षण व प्रोत्साहन दिया।
काशी में शास्त्रीय संगीत के घराने –
काशी का संगीत घराना गायन, वादन और नृत्यशैली प्राचीन काल से ही तीनों विधाओं में समृद्धि रहा है। धार्मिक, सामाजिक सुधार आंदोलनो के संतो एवं महात्माओं के प्रभाव से मंदिरों में कीर्तन या पद गायन की शैली में संगीत का विकास हुआ। वैष्णव सम्प्रदाय के मंदिर में महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित षष्ठ पीठ में गोस्वामी श्री विðलनाथ जी द्वारा राग, भोग, श्रृंगार सेवा के अवसर पर पद गायन की परम्परा में चार घराने बताये जाते हैं जिनमें एक काशी घराना भी है। अष्टछाप के एक कवि नंददास जी काशी के ही थे। काशी में शास्त्रीय संगीत को महत्वपूर्ण स्थिति प्रदान करने का श्रेय 16वीं शताब्दी के प्रारम्भ में राधा वल्लभ सम्प्रदाय के गायक पं0 दिलाराम जी मिश्र को जाता है। इन्होंने संगीत की शिक्षा स्वामी हरिदास के संगीत गुरू श्री 108 लहित हित हरिवंश स्वामी से प्राप्त की थी। इनके बाद जगमन मिश्र, देवी दयाल मिश्र का नाम मिलता है। ये धु्रपद के विशेषज्ञ थे। इनके पश्चात पं0 ठाकुर दयाल जी का नाम मिलता है। जो सदारंग अदारंग के समय में थे। पं0 ठाकुर दयाल जी भी धु्रपद गाते थे। सदारंग अदारंग से ख्याल सीखकर उन्होंने अपने पुत्रों पं0 मनोहर मिश्र, पं0 हरि प्रसाद मिश्र (प्रसिद्धू जी) को धु्रपद के साथ ख्याल भी सिखाया। ये दोनों भाई अपने काल में पूरे भारत के कलाकारों को अपनी कला क्षमता से लोहा मनवाया।
इन्हीं के द्वारा पियरी घराना स्थापित हुआ। प्रसिद्धि ऊँचाइयें पर पहुँची। इन्हीं लोग ‘लय भास्कर’ कहकर सम्बोधित करते थे। प्रसिद्धू जी के पुत्र रामसेवक जी ने भी गायन, वादन और नृत्य में प्रावीण्य प्राप्त किया। उन्होंने सर्वप्रथम स्वरलिपि पद्धति से तबले की ताल विज्ञान और ताल प्रकाश पुस्तकें लिखी। पं0 रामसेवक जी के भाई शिव सेवक जी ने गायन वादन के साथ टप्पा गायन में भी ख्याति प्राप्त की। काशी के संगीत के क्षेत्र में प्रसिद्ध-मनोहर जी के बाद शिवा-पशुपति की जोड़ी ने बहुत नाम कमाया। इन्हें सब शेर-बब्बर कहते थे। दोनों भाइयों ने गायन वादन में अनेक सुन्दर रचनाऐं बनाई। मनोहर जी के पौत्र लक्ष्मीदास जी गायन के साथ-साथ अद्वितीय वीणा वादक हुए। आपने कोलकत्ता में अनेक शिष्य बनाये।
पं0 शिवदास-प्रयाग जी घराना –
पं0 शिवदास जी एवं प्रयाग जी दोनों भाई अपने मामा राम प्रसाद मिश्र तथा मोहम्मद अली (बड़कू मियाँ) के शिष्य ने दोनों महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह के (1835-89 ई0) दरबार में इनके गायन को संरक्षण प्राप्त था। पं0 प्रयाग जी के पुत्र पं0 मिठाई लाल मिश्र अपने गायन तथा वीणा वादन के लिए प्रसिद्ध थे। पंजाब से आये उस युग के अली खाँ व फत्ते अली खाँ जो आलिया फत्तू व तान कप्तान के नाम से प्रसिद्ध थे। मिठाई लाल जी का गाना सुनकर उन्हें गले से लगा लिया। इनके शिष्य परम्परा में श्री श्यामा शंकर चौधरी (वीणा) प्रख्यात सितारवादक स्व0 रविशंकर के पिता थे। श्री संत्तू बाबू (वीणा) श्री खेतू बाबू (सितार) भारत के श्रेष्ठ सारंगी वादक पं0 सिया जी संगीत की दुनिया में प्रसिद्धि हासिल की। गायक शिष्यों में श्री धीरेन बाबू, श्री बेनी माधव भट्ट, श्री दाऊ मिश्र व पं0 श्री चन्द्र मिश्र ने काफी ख्याति प्राप्त की।
पं0 जगदीप मिश्र घराना-
काशी के ठुमरी सम्राट कहे जाने वाले जगदीप मिश्र जी उस्ताद मौजुद्दीन के गुरू थे। ये ठुमरी के सिद्धहस्थ कलाकार थे। बड़े रामदास जी का घराना- बड़े रामदास जी (1877-1960) को संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता शिव नन्दन मिश्र से प्राप्त हुई। परन्तु बाद में अपने ससुर धु्रपदाचार्य पं0 जयकर मिश्र के मुख्य शिष्य हुए जयकरण मिश्र धु्रपद गायन के मर्मज्ञ विद्वान थे। इन्होंने एक संगीत समुच्चया नामक की रचना की जो संगीत के लिए उत्कृष्ट रचना मानी जाती थी। जयकरण मिश्र जी की विद्वता को आत्म सात बड़े राम दास जी ने पूरीक्षमता से की। ये बंदिशे बनाने में बजोड़ थे। ‘मोहन प्यारे’ गोविन्द स्वामी, उपनाम से अनेक बंदिशों की रचनायें की। पं0 बड़े रामदास भारत के प्रमुख संगीतज्ञों में से एक थे। इनके अनेक शिष्यों में हरिशंकर मिश्र, राम प्रसाद मिश्र ‘रामजी’, महादेव मिश्र, गणेश प्रसाद मिश्र, जालपा प्रसाद मिश्र, छोटे मियाँ, उमा दत्त शर्मा (संतूरवादक- शिवकुमार शर्मा के पिता) ये सभी गायकी में बड़े रामदास के शिष्य थे। इसी परम्परा के निर्वहन में पं0 राजन-साजन मिश्र ने संगीत के क्षेत्र में बड़े रामदास की काशी शैली के संगीत को लोकप्रिय बनाया। अमरनाथ-पशुपतिनाथ बड़े रामदास जी के परम्परा के के रहे हैं। बड़े रामदास जी के सारंगीवादक शिष्य गोपाल मिश्र व वायलिन में शिष्य रामू शास्त्री थे।
छोटे रामदास का घराना –
गायन परम्परा के एक और श्रेष्ठ गायक पं0 छोटे रामदास जी एक कुशल गायक श्री कन्हैयालाल जी के पुत्र थे। आपने संगीत की शिक्षा ख्याल व टप्पा के सिद्धहस्त कलाकार अपने नाना पं0 ठाकुर प्रसाद मिश्र से प्राप्त की। धु्रपद की शिक्षा बेतिया के पं0 संवरू जी व धन्नू मिश्र से प्राप्त की। चूंकि ठाकुर प्रसाद जी पियरी घराना के मनोहर मिश्र व प्रसिद्ध मिश्र जी (प्रसिद्ध-मनोहर) के शिष्य परम्परा के थे और कुशल सारंगी वादक थे। अतः उन्होने छोटे जी को वीणा, सितार, दिलरूबा, सारंगी आदिवाध यंत्रों में सिद्धहस्त बना दिये। छोटे रामदास जी अपने जमाने में टप्पा के सर्वोच्च कलाकार माने जाने लगे। इनके प्रमुख शिष्यों में कलकत्ता के दामोदर मिश्र व काशी के कविराज श्री शिव कुमार शास्त्री (वैद्य) आदि थे। इनके प्रमुख प्रमुख शिष्यों में महिलाएं भी थी।
पं0 दरगाही मिश्र का घराना –
पं0 दरगाही जो ऐसे कलाकार थे जिनके अंदर गायन, तंत्रवादन, तबला, व नृत्य जैसी विधाओं का एक साथ समन्वय था। इनके शिष्यों में नंद किशोर मिश्र और चन्द्र मिश्र आदि ख्याति अर्जित की।
पं0 मथुरा जी मिश्र घराना –
पं0 मथुरा जी मिश्र धु्रपद, ख्याल, टप्पा, ठुमरी के उच्चत्तम कोटि के कलाकार थे। ये मझौली दरबार से काशी के विजयनगरम् राजा के यहाँ आए। पं0 मथुरा जी मिश्र के पौत्र राम प्रसाद मिश्र अद्भूत टप्पा व ठुमरी गायक थे।
तेलियानाला घराना –
यह घराना आधुनिक नाम शिवाला मोहल्ला (पूर्व का नाम तेलियानाला) में बसा यह घराना स्थान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस घराने में उस्ताद सादिक अली वारिस अली, अकबर अली (टप्पा) निसार अली (धु्रपद) ये सभी युगल बादशाह बहादुर शाह जफर के सत्ताच्युत होने के बाद कलाकारों को दिल्ली छोड़ना पड़ा। वहाँ के अनेक कलाकारों को काशी नरेश दरबार में स्थान मिला। उस्ताद सादिक अली से मिठाई लाल ने संगीत की शिक्षा प्राप्त की। इन्होंने आशिक अली खाँ को प्रशिक्षित किया। इनके शिष्यों में निखिल बैनर्जी, देवब्रत चौधरी, राम चक्रवर्ती आदि कलाकारों ने ख्याति अर्जित की। अन्य घरानों के नाम से भी काशी में संगीत परम्पराएँ चली आ रही है; जैसे- महादेव मिश्र घराना, दाऊ जी मिश्र का घराना, राम सहाय जी का घराना, कंठे महाराज का घराना, तमाकू जी का घराना, गोपाल मिश्र का घराना, शीतल मिश्र का घराना, बैजनाथ मिश्र का घराना, कसेरू मिश्र का घराना, सुखदेव जी (सुकरे महाराज) का घराना यह घराना कथक नृत्य (बनारस कथक नृत्य) के लिए प्रसिद्ध हुआ।
शास्त्रीय संगीत में स्त्रियों का योगदान –
काशी की संगीत परम्परा में स्त्रियों का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। जातक कथा में अट्टकाशी नामक एक गायिका और गणिका का उल्लेख मिलता है। उस समय में कुछ और गणिकाओं का उल्लेख मिलता है जिसमें सुलसा, चित्रलेखा तथा श्यामा थी। घराना प्रयाग जी में वीणावादक और संगीतज्ञ मिठाई लाल जी की प्रसिद्ध व सिद्धहस्त गायिका हुस्नाबाई व बड़ी मोतीबाई थी। हुस्नाबाई में नई-नई रचना करने की अद्भुत क्षमता थी, समाज में आदर से ‘सरकार’ के नाम से पुकारी जाती थीं। इसी प्रकार बड़े रामदास के शिष्यों में सिद्धेश्वरी, सविता देवी थी। छोटे रामदास जी की शिष्या तारा देवी के नाम का उल्लेख मिलता है। अन्य गायिकाओं में विद्याधरी, छोटी मोती बाई, राजेश्वरी बाई, रसूलनबाई, छोटी मैना, बड़ी मैना, काशी बाई, टौकी, टामी बाई, जवाहर बाई, चन्द्र कुमारी, चम्पाबाई, शिव कुंवर आदि अनेका स्त्रियों के नाम आते हैं जो काशी के संगीत में इनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। वर्तमान समय में गिरजा देवी जो सारंगीवादक सरजू प्रसाद मिश्र की शिष्या रही हैं जो आज पूरे विश्व में संगीत विघा में आदर से नाम लिया जाता है।
उप-शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत –
ठुमरी व टप्पा उपशास्त्रीय संगीत में आते हैं तथा कजली, होरी, चैती होली, बिरहा, बारहमासा आदि लोक संगीत में आते हैं। इन लोक संगीतों का प्रवेश यहाँ के गायक व गायिकाओं द्वारा शास्त्रीय उपशास्त्रीय संगीत में ढालने या उपशास्त्रीय संगीत का एक अंश बनाने का कार्य किया गया। या दूसरे रूप में कह सकते हैं कि लोक संगीत की होरी, चैत की कजली विधाओं का शास्त्रीय संगीत के अनुसार विस्तार देने का प्रयास किया जाना विशेषता की काशी में ठुमरी की उत्पत्ति, स्थान व काल में विवाद है लेकिन ठुमरी विकास तवायफों तथा कथकों के माध्यम से हुआ। ठुमरी में श्रृंगार रस, भावात्मक मार्मिक शब्दों द्वारा अभिव्यक्त कर मोहक बनाया जाता है। बनारस और लखनऊ की शैली में अंतर है। लखनऊ की ठुमरी मध्य या द्रुत लय में गायी जाती है। बनारसी ठुमरी को ‘बोल-बनाव’ ठुमरी कहा जाता है। यहाँ की ठुमरी के गीत के बोलों को ‘आलापी’ में पिरो कर विलंबित लय में गाया जाता है। ठुमरी की खासियत यह है कि गाने के शब्दों के साथ न्यायपूर्ण अभिव्यक्त भी की जाती है। यही इसकी विशेषता है। पंजाबी लोक संगीत को शास्त्रीय संगीत में ढालकर टप्पा को विकसित किया गया जिसका श्रेय शीरी मियाँ को जाता है। काशी के टप्पा गायकों में अकबर अली बहादुर शाह जफर के साथ काशी आये थे। उदित नारायण सिंह ने टप्पा के अद्भूत गायक उस्ताद मियाँ राम को लखनऊ से काशी ले आये और यहाँ पर अनेक गायक-गायिकाओं को शिक्षा दी और इसे लोक प्रियता प्रदान करायी।
काशी व मिर्जापुर में विशेषकर कजली सावन मास में गायी जाती है। कजली की विशेषता यह है कि प्रकृति के सौंदर्य, खासतौर पे वर्षा ऋतु, परिवार में भाई-बहन के प्रेम, पति-पत्नी के नोंक झोंक तथ विरह आदि सामाजिक विषयों को केन्द्र में रखकर रागात्मक रूप में प्रस्तुत की जाती है। विवाहित महिलाएँ अपने माता-पिता के घर आकर कजली तीज मनाने आती हैं। रात भर महिलाओं का समूह जागकर गीत गाती हैं। काशी में अनेक स्थान थे जहाँ कजली गाई जाती थी। कजरी के कई रचनाकार भी हुए हैं और कजली के अनेक प्रकार जैसे मुनिया कजरी, दंगली कजरी और शास्त्रीय कजली। इसी प्रकार यहाँ के अन्य लोक संगीत में समाज के विभिन्न बिन्दुओं को ध्यान में रखकर गाये जाते रहे हैं, जिसमें श्रृंगार रस, वीर रस प्रकृति केन्द्रित गीत, विरह आदि विषय होते थे। विरहा पारंपरिक वीरों की स्मृति में गाया जाने वाला गीत, उसी प्रकार चैती होली व बारमासा ऋतुओं तथा मांगलिक कार्यक्रमों (विवाह-मुण्डन) धार्मिक आयोजनों में ये सभी गीत लोक संगीत है।
काशी में संगीत समारोह
काशी में संगीत समारोह –
काशी में संगीत के कार्यक्रम पूर्व में पारिवारिक आयोजनों जैसे शादी-विवाह आदि में बड़े धनिकों (रईसों) के घरों के चौक या दीवान खाने में तात्कालिक समय की प्रसिद्ध गायिकाएँ रातभर अपने संगीत से वातावरण को सुरम्य बनाती थीं। दूसरे प्रकार का आयोजन बुढ़वा मंगल, गुलाब बाड़ी, होली, सावन-झूला-झूमर, कजरी मेला आदि कार्यक्रमों संगीत जैसे कार्यक्रमों का आयोजन होता था।
काशी में संगीत सम्मेलन भी हुए है। 1951ई0 में पं0 ओंकारनाथ ठाकुर के संयोजक व संगीत कान्फरेंस हुई जिसमें उस समय देश के कई संगीत गायक-विद्वान उस कान्फरेंस के हिस्सा थे। इस कांफ्रेन्स में लता मंगेशकर की भी उपस्थिति रही है। काशी में आज भी विश्व प्रसिद्ध संगीत आयोजन होते हैं, उनमें धु्रपद मेला 1975ई0 संकटमोचन संगीत समारोह (1930ई0) में देश के सुविख्यात कलाकार आते रहे हैं। ये दोनों आयोजन तब से अनवरत प्रतिवर्ष होता आया है। संकटमोचन संगीत समारोह में पं0 जसराज कई वर्षो से अपनी गायकी से मोहित करते चले आ रहे हैं। ओडिशी नृत्य सम्राट स्व0 केलुचरण महायात्रा भी कई वर्षों तक संकट मोचन संगीत समारोह में आये थे। सुनंदा पटनायक भी इस संगीत कार्यक्रम की शोभा रहती हैं। तबला वादक सुरेश तलवरकर, अन्य कई नामचीन हस्तियाँ इस समारोह में नृत्य, गायन व वादन करते हैं। धु्रपद मेला में भी धु्रपद के माहिर कलाकार आते रहे हैं। जिनमें डांगर बन्धु विशेष तौर पर रहे हैं। इसमें प्रख्यात तबला वादक जाकिर हुसैन भी आ चुके हैं। संकटमोचन संगीत समारोह में बनारस के कलाकार जैसे स्व0 किशन महराज द्वारा प्रस्तुति अविस्मरणीय रही है। पं0 राजन-साजन मिश्र, छन्नू लाल मिश्र भी अपने गायकी से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करते चले आ रहे हैं। इसी प्रकार 1764ई0 गुलाब बाड़ी कार्यक्रम चला आ रहा है। गंगा महोत्सव (1990ई0), वरूणा महोत्सव, हनुमान प्रसाद पोद्दार अन्ध विद्यालय (दुर्गाकुण्ड) दुर्गा मंदिर आदि में संगीत के कार्यक्रम प्रतिवर्ष होते चले आ रहे हैं।
काशी के संगीत में गायन-वादन व नृत्य तीनों में समानान्तर विकास दिखाई देता है। यहाँ कथकों का योगदान भी है। वाद्य यंत्रों में सारंगी, वायलिन, वीणा, सितार, सरोद बाँसुरी, सुशिर वाद्य शहनाई, मृदंग अथवा पखावज व तबला में कई विश्व स्तरीय कलाकार व संगीत साधक हुए हैं। काशी तबला व नृत्य दोनों विद्या के शिक्षण का केन्द्र रहा है। सारंगी में पं0 तमाखू मिश्र सुविख्यात सारंगीवादक थे। पं0 शम्भूनाथ मिश्र जिनको पीढ़ियों से सारंगी वादन की विशिष्ट परम्परा को संजोया और सवांरा था। पं0 शम्भूनाथ मिश्र श्री सुमेरू मिश्र ‘सूरज-चन्द्रमा की जोड़ी के रूप में प्रसिद्ध थे। अन्य सारंगीवादकों मिया जी मिश्र, गोपाल मिश्र, बड़े गणेश जी, श्री हनुमान मिश्र आदि सारंगी वादक थे। काशी के वायलिन वादकों में गोपाल मिश्र तथा गोपीनाथ प्रसिद्ध थे। इनकी संख्या बहुत ही कम थी। पं0 ओंकारनाथ ठाकुर (संगीत मार्तण्ड) की शिष्या श्रीमती एन0 राजम प्रसिद्ध वायलिन वादिका हैं। आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में म्युजिकल कालेज की प्रधानाचार्य थीं।
वाद्य संगीत के क्षेत्र में पं0 लक्ष्मी प्रसाद मिश्र तथा उमराव खाँ प्रसिद्ध वीणा वादक थे। यहाँ के ही पं0 रामसेवक सुप्रसिद्ध सितार वादक हुए। इनके पुत्र पशुपति सितार में बहुत ही निपुण थे। बहादुरशाह जफर के साथ उस्ताद वारिस अली खाँ आये। आपकी वीणा व सितार में अपनी अलग विशिष्ट शैली थी। अन्यवाद्यवादकों में थे- पं0 दरागाहाी मिश्र, नन्नी गोपाल मोतीलाल (सितार) पं0 छोटे रामदास (वीणा), पन्नालाल शर्मा (वीणा, सितार, सुरबहार), शिवप्रसाद (गायन, सितार तथा मृदंग) तथा वीणा वादक थे। इनमें से अधिकांश नामों का उल्लेख घरानों का जिक्र करते समय आ चुका है।
काशी के संगीत में मृदंग वादकों में श्री मन्नू जी मृदंगाचार्य, तुलसीराम, विट्ठलदास गुजराती, जमुनादास गुजराती एवं अमरनाथ मिश्र आदि लोगों का विशेष स्थान रहा। पं0 अमर नाथ जी का योगदान संकटमोचन संगीत समारोह के लिए जाता है। इसी प्रकार बाँसुरी वादन के क्षेत्र में भी काशी के कलाकार अग्रणी रहे है। जिसमें श्री भोलानाथ जी प्रमुख थे। इलाहाबाद के पं0 हरिप्रसाद चौरसिया जी इनसे पूर्ण शिक्षा प्राप्त की थी। बाँसुरी वादन के क्षेत्र मंे अन्य विशिष्ट कलाकारों ने भी अपनी साधना भूमि काशी को ही बनायी जिसमें श्री रघुनाथ प्रसन्ना जी, श्री श्यामलाल जी, श्री तारकनाथ नाग जी और राजेन्द्र प्रसन्ना आदि कलाकार अपनी कला से बाँसुरी के क्षेत्र में काफी विकास किया।
काशी से वर्तमान में बहुत से दिग्गज कलाकार हुए हैं जिन्होने विश्व में नाम किया है। उनमें हैं- पं0 रविशंकर (सितार) पं0 किशन महराज (तबला) भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पं0 ओंकारनाथ ठाकुर की कर्मस्थली काशी में भी रही है। इनके योग्य शिष्य श्री नन्दन सिन्हा की गायकी अद्भुत थी। ओंकारनाथ ठाकुर जी की गायकी को प्रस्तुत करने की अद्भुत शक्ति थी। वर्तमान में आप लोग तो नहीं है परन्तु इनकी साधना आज तक जीवित और देदिप्यमान है। गिरिजा देवी, पं0 राजन-साजन मिश्र, छन्नू लाल मिश्र, प्रो0 ऋत्विक सन्याल आदि अन्य कलाकार हैं जो संगीत साधना में लगे हुए हैं। अभी काशी के संगीत व संगीत साधकों पे कुछ भी लिखा जाय वो कम ही है और ऐसे बहुत से नवोदित कलाकार हैं जो अपनी-अपनी विधा में प्रयासरत हैं। यद्यपि यहाँ के संगीत व कलाकारों के बारे में अभी बहुत कुछ अध्ययन व लिखने की आवश्यकता है।
– संजय शुक्ल
काशी में अनूठी विधाः ठुमरी गायकी
भारत की ऐतिहासिक नगरी काशी प्राचीनकाल से ही देश की सांस्कृतिक केन्द्र स्थली रही है। प्राचीनकाल में काशी पांच विभिन्न नामों से अत्यन्त प्रसिद्ध थी- काशी1, वाराणसी2, अविमुक्त3, आनन्दकानन4 एवं महाश्मशान5। स्कन्दपुराण काशी की महिमा का गुणगान करते हुए कहता है –
‘भूमिष्ठापिन यात्र भूस्त्रिदिवतो।प्युच्चैरधः स्थापिया।।
या बद्धाभुविमुक्ति दास्युरमृतयस्यामृताजन्तवः।।
या नित्यंत्रिजगत्पवित्र टिनीतिरेसुरैः सेव्यते।।
सा काशी त्रिपुरारिराजनगरी पायादपायाज्जगत्।।’
अर्थात् जो भूतल पर होने पर भी पृथ्वी से सम्बद्ध नहीं है जो जगत की सीमाओं से बंधी होने पर भी सभी का बन्धन काटने वाली (मोक्षदायिनी) जो महात्रिलोक वादनी गंगा के तट पर सुशोभित तथा देवताओं से सुसेवित है त्रिपुरारी भगवान विश्वनाथ की राजधानी वह काशी सम्पूर्ण जगत की कृपा करें। शिल्प, कला, धर्म, हो अथवा दर्शन, साहित्य हो अथवा संगीत सभी क्षेत्रों में अप्रितम नगरी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा और विकसित हुआ। यह घराना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध घरानों में गिना जाता है। शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में इस घराने का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। यह घराना, गायन और वादन दोनों कलाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है। इसके साथ ही बनारसी घराने के तबला वादकों की भी एक स्वतंत्र शैली रही है और सारंगी वादकों के लिए भी यह घराना काफी प्रसिद्ध रहा है। बनारस घराने की गायन एवं वादन शैली पर उत्तर भारत के लोकगायन का गहरा प्रभाव है। कुछ विद्वानों का कथन है कि आर्यों के भारत में स्थायी होने से पहले यहाँ की जनजातियों में संगीत विद्यमान था, उसका आभास बनारस के संगीत में दिखता है। इसमें ठुमरी की बनारसी शैली बहुत ही प्रचलित है। ठुमरी रसमय और भावुकता प्रधान, कल्पनापूर्ण, चपल लय की मुरकी प्रधान गायनशैली है, इसमें श्रृंगार रस युक्त सुन्दर व मधुर रचनाओं द्वारा रस संचार किया जाता है।
ठुमरी की बनारसी शैली- “ठुमरी मूलरूप से लखनऊ की पैदाइश है, लेकिन यह पनपी बनारस में है।” कुछ विद्वानों का मत है “ लखनऊ के विन्दादीन के भाई कालकाप्रसाद ठुमरी शैली को बनारस ले गये और उन्हीं के द्वारा वहां की तवायफों में इसका प्रचार हुआ।”6 बनारस अंग ठुमरी रचनाओं पर पूर्वी प्रदेशों की लोकधुनों, लोकगीतों और बोलियों का बहुत प्रभाव पड़ा। “फलस्वरूप बनारस की ठुमरी में कुछ निजी विशेषतायें पैदा हो गई, जिस कारण वह लखनवी ठुमरी से पृथक हो गई। सम्भवतः इसलिए कहा गया है कि बनारस की ठुमरी लखनऊ की ठुमरी का अनुवाद अथवा पाठान्तर है।”7
बनारसी ठुमरी पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाये जाने वाले झूमर, पूरबी, कजरी, चैती, होली, सावनी आदि लोकगीतों का बहुत प्रभाव दिखाई देता है, इसीलिए इसमें सादगी व सरलता है। बनारसी शैली की ‘बोलबाजी’ या कथन अलग प्रकार की है जिसमें बोल के बनाव का एक विशेष रूप है जो ठुमरी की रचना के अनुसार रस एवं भावों को विभिन्न काकु-प्रयोगों (हूक, दर्द, पुकार) द्वारा प्रस्तुत किया है जो अत्यन्त ही मधुर एवं हृदयस्पर्शी है। एक विशेष प्रकार की अदायगी के कारण बनारसी ठुमरी को ‘कहन ठुमरी’ भी कहा गया है। “बनारसी ठुमरी के भी दो प्रकार हैं। पहली घनाक्षरी यानी शायरी ठुमरी जो द्रुतलय में गाई जाती है। दूसरी ‘बोल की ठुमरी’ जिसे मंद गति से गाते हैं और एक-एक शब्द को बोल बनाते हैं। यहाँ ठुमरी में अदायगी का अपना एक अलग रंग है इसकी खूबसूरती और लोच अपेक्षाकृत ज्यादा है।”8 बनारसी ठुमरी के कलाकारों में बड़े रामदास जी, पंडित भोलानाथ भट्ट, बड़ी मोतीबाई, पं0 महादेव प्रसाद मिश्र, सिद्धेश्वरी देवी, गौहरजान, विद्याधरी, रसूलनबाई, मंगूबाई, सुग्गनबाई, बागेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, शोभा गुर्टू, सविता देवी, रीता गांगुली, नैना देवी, अनीता सेन, पूर्णिमा चौधरी आदि नाम उल्लेखनीय है।
इनमें से प्रत्येक कलाकार ने अपनी गायकी की विशेषताओं से बनारसी ठुमरी को समृद्ध किया है। यद्यपि लखनऊ से ठुमरी विधा बनारस पहुंची थी किन्तु कालान्तर में उत्तर भरतीय संगीत में बनारसी ठुमरी का इतना प्रचलन बढ़ा कि वर्तमान में वह पूरब अंग ठुमरी की एकमात्र प्रतिनिधि समझी जाती है और लखनऊ ठुमरी का केवल नाम ही शेष रह गया है। इस प्रकार काशी (बनारस घराना) का संगीत जगत को ठुमरी गायनशैली के रूप में महत्वपूर्ण योगदान है।
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