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कूद नृत्य

कहरही (कहरुआ नृत्य)

'कंहारों' का पुस्तैनी पेशा पालकी ढोना था। बाद में ये मिटटी बर्तन भी बनाने लगे। इस काम में उल्लास के लिए इन्होने नाचना -गाना भी अनिवार्य समझा। अतः चाक की गति के संग-संग गीत भी गुनगुनाने लगे। 'संघाती' घड़े पर ताल देने लगे और ठुमकने भी लगे। ओरी-ओरियानी खड़ी होकर महिलाएं गीत दुहराने लगीं। इस प्रकार नृत्य, गीत, वाद्य का समवेत समन्वय हो गया और उससे एक विधा का जन्म हो गया जिसे 'कंहरही' कहते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहाँ इनकी बस्ती है, ये लोग अपने आनंद और आल्हाद के लिए, श्रम -परिहार के लिए, मधुर धुन, लय, ताल में नाचने-गाने लगे।

कत्थक नृत्य और रास

वर्तमान रास-नृत्य, कत्थक-नृत्य से प्रभावित कहे जा सकते है परन्तु हमारे विचार से यह कत्थक से संबंधित होते हुए भी स्वतंत्र है। इसका कारण शायद यह रहा कि प्राची परम्परा का प्रभाव इन नृत्यों पर भक्ति युग में भी बना रहा होगा और उसी को वल्लभ ने अपना आधार बनाया होगा। रास के प्राचीन नृत्यों में चर्चरी का उल्लेख हुआ है। यह चर्चरी नृत्य रास में आज से लगभग चालीस-पचास साल पहले तक होता रहा है, परन्तु अब लुप्त हो गया है। रास-नृत्य में धिलांग का भी उपयोग है जो बहुत ही प्रभावशाली और अनूठा है। यह कथक या किसी अन्य नृत्य-शैली में नहीं मिलता। इसी प्रकार श्री कृष्ण रास में जो घुटनों का नाच नाचते है वह भी बेजोड़ ह

लूर नृत्य

लूर नृत्य मारवाड़ (राजस्थान) का लोक नृत्य है। यह नृत्य फाल्गुन मास में प्रारंभ होकर होली दहन तक चलता है। यह नृत्य राजस्थानी महिलाओं द्वारा किया जाता है। महिलाएँ घर के कार्य से निवृत होकर गाँव में नृत्य स्थल पर इकट्ठा होती है, एवं उल्लास के साथ एक बड़े घेरे में नाचती हैं।

चाक्यारकूंतु नृत्य

केरल राज्य में आर्यों द्वारा प्रारम्भ किये गये चाक्यारकूंतु नृत्य शैली का आयोजन केवल मंदिर में किया जाता था और सिर्फ़ सवर्ण हिन्दू ही इसे देख सकते थे।
नृत्यगार को कूत्तम्बलम कहते हैं।
स्वर के साथ कथापाठ किया जाता है, जिसके अनुरूप चेहरे और हाथों से भावों की अभिव्यक्ति की जाती है

जनजातीय इन्द्रवासी नृत्य

'धरकार' एक ऐसी जनजाति है जो मुख्य रूप से वाद्य यंत्र बनाकर अथवा डलिया - सूप बनाकर अपनी जीविका चलाती है और जब वाद्य यंत्र बनाती ही है तो नाचना गाना भी होता ही है। पूर्वांचल के सोनभद्र सहित अन्य जनपदों में बांस-वनों के समीप निवास करने वाली यह जनजाति निशान (सिंहा), डफला, शहनाई, बांसुरी, ढोल, मादल बना कर और बजाकर, झूम कर जाने कब से नाचती -गाती आ रही हैं। विवाह, गवना, मेले - ठेलों में या फिर बाजारों में भी होली - दीपावली, दशहरा, करमा आदि पर्वों पर ये लोग इन्द्रवासी नृत्य करके सबको मुग्ध कर देते हैं।

नटुआ नृत्य

'खटिकों' की तरह चर्मकार जाति के लोग 'नटुआ' नाच करते हैं। पहली फसल कट जाने पर फाल्गुन -चैत की चांदनी रात में यह द्वार-द्वार जाकर नाचते-गाते और बदले में कुछ अनाज या पैसा पाते थे। ये लोग बरी-भात और पूड़ी पर नाचते थे। अब अपनी बस्ती में वृत्त - अर्धवृत्त बनाकर घुमते हुए नाचते और हास्य - व्यंग में अभिनय करते हैं। रंग - बिरंगी गुदड़ी पहने चूना कालिख लगाये प्रहसक अश्लील् चुटकुले बोलता है। नर्तक बीच में नाचता है। एक टेढ़ी छड़ी अनिवार्य होती है। ढोल, छड, घंटी, झांझ, छल्ला, पावों में पैरी, कमर में कौड़ी बांधे नर्तक हास्य का माहौल सृजित कर देते हैं।

बागड़िया नृत्य

बागड़िया नृत्य कालबेलिया स्त्रियों द्वारा भीख माँगते समय किया जाता है। बागड़िया नृत्य राजस्थान के लोक नृत्यों में से एक है। यह नृत्य सपेरा जाति कालबेलिया की स्त्रियों द्वारा किया जाता है।

बालर नृत्य

यह गरासियों का नृत्य है, जो विशेषकर गणगौर त्यौहार के दिनों में होता है. इसमें स्त्रीप्रसिद्ध है. इस नृत्य में विभिन्न शारीरिक करतब दिखाने पर अधिक बल दिया जाता है. यह उदयपुर संभाग में अधिक प्रचलित है. अनूठी नृत्य अदायगी, शारीरिक क्रियाओं के अद्भुत चमत्कार तथा लयकारी की विविधता इसकी खासियत है |

सोंगी मुखौटा नृत्य

सोंगी मुखौटा नृत्य हाथ में छोटी डंडियॉं लेकर किया जाता है। सोंगी मुखौटा नृत्य चैत्र मास की पूर्णिमा पर देवी की पूजा के साथ महाराष्ट्र में किया जाता है। इस नृत्य में दो कलाकार नरसिंह रूप धारण कर नृत्य करते हैं। महाराष्ट्र में होली के बाद यह उत्सव मनाया जाता है।

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