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सुर ना सजे क्या गाऊँ मी ?

सुर ना सजे क्या गाऊँ मी ?

सुर ना साधे काय गाऊ मी?सुर के बिना जीवन सुना............सुर ना साधे ?
आणि सुंदरता ते एक गायक की मनोव्था का वर्णन करतात.
सुर की महिमा अपार आहेत ,संपूर्ण जीव सृष्टि मी सुर पुढं आहेत ,उसी एक सुर को साधने मध्ये संगीतघ्यो की सारी निघतात ,पर सुर की सधता ही नाही. म्हणतात........
" तंत्री नाद कवित्त रस सरस नाद रति रंग ।
अनबुढे बूढे,तीरे जो बूढे सब अंग । "

अर्थात- तंत्री नाद यानि संगीत,कविता आदि कलाए हे की इनमे जो पुरी डूब गेला तो आणि जो आधा-अधुरा डूबा ,वह डूब झाला म्हणजे त्याला कलाए प्राप्त नही हो सकी ,वह असफल झाला.
सच आहे ,कला शिकना , प्रेम करना एक गोष्ट आहे ,पर कला की साधना दुसरी गोष्ट !एक बार पक्का निर्णय झाला की आम्हाला हे कला शिकनी आहे तो कला के लिए सर्व जीवनाभिमुख काम नही चालू ,सब कुछ भूल कर दिन रात एक रियाज़ करना होता ,साधना करनी पडती ,तपस्या करनी पडती । तब कही जाकर सुर कंठ मध्ये उतरता आहेत ,हाथो से सृजन बनकर वाद्यों की सुरिल लहरींमध्ये बहता आहेत ।

कलाकार होना कोणतेही साधे काम नाही.तुम्ही ,कोई कठिन नही रहती ,आपण योगियां,मनीषियां की तरह आत्मानंद प्राप्त करतो. जीवन सुंदर -सरल आणि मधुर होतात. इन कलाओ के नशे में जो डूब गया उसके लिए नशा करने की जरुरत ही नही रह जाती, सुर सुधा से बढ़ती कोई सुधा नही ,कला सुधा ही सबसे सरस सुधा।
इन कलाओ जब कृपा होती , तो सारे संसारी जनों का प्रेम मिळवतात, तो भी तो कलाए स्वयं ईश्वराला प्रिय आहेत मीकंठ से जब सुर सरिता बहती तो नाही गाना पडता "सुर ना साधे काय गाऊ?" मिळवण्यासाठी साधना म्हणजे रियाज़ !


सुर ना सधे क्या गाऊ मैं?सुर के बिना जीवन सुना ............सुर ना सधे ?
कितना सुंदर गीत हैं न!और कितनी सुन्दरता से एक गायक की मनोवय्था का वर्णन हैं ।
सुर की महिमा अपार हैं ,सम्पूर्ण जीव सृष्टि मैं सुर विद्यमान हैं ,उसी एक सुर को साधने में संगीत्घ्यो की सारी आयु निकल जाती हैं ,पर सुर हैं की सधता ही नही हैं । कहते हैं ........
" तंत्री नाद कवित्त रस सरस नाद रति रंग ।
अनबुढे बूढे,तीरे जो बूढे सब अंग । "

अर्थात - तंत्री नाद यानि संगीत,कविता आदि कलाए ऐसी हैं की इनमे जो पुरी तरह से डूब गया वह तर गया और जो आधा-अधुरा डूबा ,वह डूब गया अर्थात उसे यह कलाए प्राप्त नही हो सकी ,वह असफल हो गया ।
सच हैं ,कला सीखना,कला से प्रेम करना एक बात हैं ,पर कला की साधना करना दूसरी बात!एक बार पक्का निर्णय हो गया की हमें यह कला सीखनी हैं तो उस कला के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित किए बिना काम नही चलता,सब कुछ भूल कर दिन रात एक करके रियाज़ करना होता हैं ,साधना करनी पड़ती हैं ,तपस्या करनी पड़ती हैं । तब कही जाकर सुर कंठ में उतरता हैं ,हाथो से सृजन बनकर वाद्यों की सुरिल लहरियों में बहता हैं ।

कलाकार होना कोई सरल काम नही। आप चाहे लेखक हो,संगीतघ्य हो,चित्रकार हो ,उस विधा में आपको स्वयं को भुला देना होता हैं,और एक बार जब ये कलाए आपको अपना बना लेती हैं,जब आप इनके आनंद में खो जाते हैं ,तो दुनिया में कोई दुःख नही रहता ,कोई मुश्किल नही रहती ,आप योगियों,मनीषियों की तरह आत्मानंद प्राप्त करते हैं । जीवन सुंदर -सरल और मधुर हो जाता हैं। इन कलाओ के नशे में जो डूब गया उसके लिए नशा करने की जरुरत ही नही रह जाती,सुर सुधा से बढ़कर कोई सुधा नही ,कला सुधा ही सबसे सरस सुधा हैं।
इन कलाओ जब कृपा होती हैं ,तो सारे संसारी जनों का प्रेम मिलता हैं,तभी तो यह कलाए स्वयं ईश्वर को भी प्रिय रही हैं ।कंठ से जब सुर सरिता बहती हैं तो नही गाना पड़ता "सुर ना सधे क्या गाऊ मैं ?"बस उसके लिए जरुरी हैं साधना अर्थात रियाज़ !