निबद्ध- अनिबद्ध गान
निबद्ध- अनिबद्ध गान: व्याख्या, स्वरूप, भेद
निबद्ध – अनिबद्ध की व्याख्या प्राचीन ग्रंथों से लेकर आधुनिक काल तक होती रही है। निबद्ध -अनिबद्ध विशेषण हैं और ‘गान’ संज्ञा है जिसमें ये दोनों विशेषण लगाए जाते हैं। निबद्ध – अनिबद्ध का सामान्य अर्थ ही है ‘बँधा हुआ’ और ‘न बँधा हुआ’, अर्थात् संगीत में जो गान ताल के सहारे चले वह निबद्ध और जो उस गान की पूर्वयोजना का आधार तैयार करे वह अनिबद्ध गान के अन्तर्गत माना जा सकता है। वैसे निबद्ध के साथ आलप्ति और अनिबद्ध के साथ लय का काम किया जाता रहा है।
निबद्ध गान के तीन भेद माने गये हैं यथा- प्रबन्ध, वस्तु और रूपक। ये तीन नाम एक दूसरे के पर्यायवाची माने जा सकते हैं। क्योंकि इनके अर्थ एक ही हैं। इसमें अन्तर इतना ही है कि जिस ‘बन्ध’ में चारों धातु और छहों अंग हों वह ‘प्रबंध’ है और जिसमें धातुओं तथा अंगों की संख्या कुछ कम हो तो वह ‘वस्तु’ है। जहाँ गीत में नाट्य का पुट परिलक्षित हो वहाँ ‘रूपक’ समझना चाहिये।
प्रबन्ध के धातु और अंग
हमारे शास्Ny_Buddhaत्र में प्रबंध की एक पुरुष के रूप में कल्पना की गयी है। जैसे पुरुष के शरीर में वात, पित्त, कफ ये धातुएँ मानी जाती हैं उसी प्रकार प्रबंध पुरुष के चार या पाँच धातु माने गये हैं। आयुर्वेद में मनुष्य शरीर के छ: अंग माने गये हैं। प्रबंध पुरुष के भी छ: अंग हैं। इन धातुओं और अंगों का विवरण निम्नलिखित है।
धातु- उदग्राह, मेलापक, ध्रुव और आभोग ये चार धातुएँ हैं। इन्हे गीत के खण्ड के रूप में समझ सकते हैं। आज हमारे गान में स्थायी अंतरा संचारी और आभोग दिखता है जब कि ख्याल गायकी में तो मात्र स्थायी और अंतरा ही होता है। उसी प्रकार ‘उदग्राह’ गीत का प्रथम भाग होता है। जिसे ‘ध्रुव’ के पहले गाया जाता था। ‘ध्रुव’ आज के ‘स्थायी’ का ही प्राचीन रूप है। जिसे गीत के अंत तक प्रत्येक कड़ी के बाद पुन: पुन: गाया जाता था। ‘उदग्राह’ व ‘ध्रुव’ के बीच में ‘मेलापक’ का स्थान होता है। जिसका अर्थ है मिलाने वाला। गीत के अंतिम भाग को ‘आभोग’ कहा जाता है। अंतरा नाम का पाँचवाँ धातु ध्रुव और आभोग के बीच में माना गया है। दो तीन या चार धातुओं से प्रबंध की रचना की जा सकती है। आज ध्रुवपद या ख्याल सभी की बंदिशों का प्रारंभ ध्रुव (स्थायी) से ही होता है। अर्थात् जिसे हम मुखड़ा कहते हैं वही ध्रुव बनता है। ध्रुपद में दूसरे भाग को अंतरा कहते हैं जो ध्रुव व आभोग के बीच की कड़ी है। वास्तव में आज के ध्रुपद में प्रबंध के धातु में से ध्रुव अंतरा और आभोग ही जिवित हैं। उदग्राह और मेलापक आज की निबद्ध पद्धति से लुप्त हो चुके हैं।
अंग- प्रबंध के छ: अंग माने गये हैं। यथा- स्वर, विरुद, पद, तेन अथवा तेनक, पाट और ताल। इन छ: अंगों में स्वर तथा ताल के बिना प्रबंध की रचना हो ही नहीं सकती। अतएव किसी भी रचना के ये अनिवार्य अंग हैं। पद, विरुद व तेन साहित्य से संबंधित गीत के भेद हैं।
१- पद- ऐसा शब्द जो न तो मंगल अर्थ प्रकाशक होने के कारण तेन के अन्तर्गत जा सके और न ही गुण सूचक होने से विरुद के रूप में ग्रहण किया जा सके; पद कहलाता है।
२-तेन- मंगलार्थ प्रकाशक जैसे ‘हरि ऊँ’ अथवा ‘सर्व खल्विदं ब्रम्ह’ इत्यादि शब्दों को ‘तेन’ कहते हैं।
३- विरुद- गुण सूचक नाम को विरुद कहते हैं।
४- पाट- ताल वाद्य पर बजने वाले वर्ण समूह को ‘पाट’ कहते हैं अर्थात् प्रबंध में स्वर व ताल संगीत के तत्व हैं। गीत तत्व के अन्तर्गत पद, तेन, विरुद एवं पाट का संग्रह किया जाता है। आज भी ध्रुपद शैली के गीतों में विरुद तथा तेन अंग के शब्दों का प्रयोग होता देखा जा सकता है। अन्य गीत पद के अन्तर्गत आ जाते हैं। ‘तिरवट’ शैली के गीत ‘पाट’ के अन्तर्गत आते हैं।
उपर्लिखित छ: अंगों में से ६,५,४,३,२ अंगों से भी प्रबंधों की रचना होती है। इसीलिये अंगों की संख्यानुसार प्रबंधों की ५ जातियाँ मानी गयी हैं। जो निम्नलिखित हैं।
१- भेदिनी- ६ अंग
२- आनन्दिनी- ५ अंग
३- दीपिनी- ४ अंग
४- भावनी- ३ अंग
५- तारावली- २ अंग
उपर्युक्त व्याख्या से यह बात कही जा सकती है कि प्राचीन प्रबंध के धातु और अंग का लोप नहीं हुआ है वरन् वह किसी न किसी रूप में आज भी प्रयोग में हैं। आज स्थायी और अंतरा के रूप में दो धातुएँ तो जीवित ही हैं; साथ ही पद, विरुद, स्वर, ताल, पाट भी किसी न किसी रूप में अभिमूर्त हैं। विशेष परिवर्तन यही है कि आज हम प्रबंधों के प्रकारों के शास्त्रीय नाम तथा विभाजन को बिल्कुल भूल बैठे हैं। और यह भी सत्य है कि जितनी विविधता शास्त्रों में वर्णित है उतनी आज प्रत्यक्ष प्रयोग में नहीं रह गयी है।
अनिबद्ध – अनिबद्ध को शार्ङ्रदेव ने आलप्ति कहा है जिसका वर्णन उन्होंने रागाध्याय में किया है। इसके बारे में विस्तार से चर्चा कल्लिनाथ ने अपनी संगीत रत्नाकर की टीका में की है। जिसके अनुसार ‘ आलप्ति में आविर्भाव व तिरोभाव दोनों का विनियोग करते हुए राग का थोड़ा थोड़ा प्रकटीकरण अभिप्रेत है।’ अर्थात् राग को एक बार में ही स्पष्ट कर प्रस्तुत कर देने में सौंदर्य नहीं है; ढकने खोलने की लुका छिपी में सहृदयों को आनंद मिलता है।[1] इसलिये ‘रागालापनमालप्ति: प्रकटीकरणं मतम्’ इस लक्षण में तिरोभाव सूचक लक्ष्य ‘आलप्ति’ शब्द का पूरक है।
‘संगीत रत्नाकर’ में वर्णित आलप्ति के लक्षण के अनुसार ग्रह-अंश, मन्द्र-तार, न्यास-अपन्यास, अल्पत्व-बहुत्व और औडव-षाडव की अभिव्यक्ति जहाँ हो वह ‘रागालाप’ है। अर्थात् आलाप का प्रयोजन राग विशेष के लक्षणों की अभिव्यक्ति मात्र है। किन्तु सहृदय का रंजन यहाँ प्रयोजन नहीं है। यही रागालाप जब शार्न्गदेव के अनुसार जब विदारी (खण्ड) पृथक – पृथक करके अर्थात् अपन्यास स्वरों के अनुसार विराम देते हुए प्रस्तुत किया जाय, तब ‘रूपक’ कहलाता है। यह रूपक अनिबद्ध का प्रकार है और निबद्ध की तीन संज्ञा – प्रबंध, वस्तु, रूपक में आये रूपक से सर्वथा भिन्न है।
आलप्ति के दो भेद माने गये हैं। – १- रागालप्ति, २- रूपकालप्ति।
रागालप्ति का विभाजन ४ स्वस्थान में किया जाता है। स्वस्थानों का क्षेत्र स्थायी स्वर (Tonic) से निर्धारित होता है। आज सभी रागों में षडज स्वर ही स्थायी स्वर होता है। स्थायी षडज से चतुर्थ स्वर (म) से पूर्व तक अर्थात् स्थायी (tonic) से तीसरे स्वर (ग) तक प्रथम स्वस्थान का क्षेत्र है। अर्थात् रागालप्ति का प्रथम खण्ड षडज से गंधार तक ही बनेगा। मन्द्र स्वर में प्रथम स्वस्थान का क्षेत्र बना रहेगा। चतुर्थ स्वर को द्वि +अर्ध = द्वयर्ध संज्ञा दी गयी है, जिसका अर्थ है एक से दुगने तक के अन्तर का आधा भाग यानि कि डेढ़। ‘द्विगुण’ संज्ञा अष्टम स्वर (सं) की है। अत: चौथा स्वर द्वयर्ध है। जब चतुर्थ स्वर यानि मध्यम को लेते हुए रागालप्ति होगी तब द्वितीय स्वस्थान बनेगा। सप्तम् स्वर तक तृतीय स्वस्थान बनेगा और द्विगुण यानि अष्टम् (सं) स्वर को ले लेने पर चतुर्थ स्वस्थान निष्पन्न होगा। अष्टम स्वर के बाद तार स्थान में मध्य सथान की ही पुनरुक्ति होती है अस्तु तार स्थान में कोई नया स्वस्थान नहीं माना गया है। यदि प्रथम स्वस्थान में ऋषभ स्वर वर्जित हो तो भी गांधार तक ही पहला स्वस्थान गिना जायेगा। रागालाप में आविर्भाव व तिरोभाव का बड़ा महत्व होता है। रागाभिव्यंजन हेतु इसके द्वारा राग के छोटे छोटे स्वर समूहों से राग की स्थापना करी जाती है।
रूपकालाप में जैसा काम निबद्ध गान में लयात्मकता के साथ करते हैं वैसा ही किया जाता है। रूपकालप्ति दो प्रकार की है। १- प्रतिग्रहणिका २- भञ्जनी।
प्रतिग्रहणिका का अर्थ है छोड़ कर फ़िर पकड़ना। आलाप में स्थाय का प्रयोग करके रूपक के अवयव का प्रतिग्रहण करना ‘प्रतिग्रहणिका’ है। रूपक के अवयव को आज की भाषा में ‘मुखड़ा’ समझ सकते हैं।
भञ्जनी का अर्थ है तोड़ना या खण्ड में बाँटना। भञ्जनी भी दो प्रकार की होती है- स्थाय भञ्जनी और रूपक भञ्जनी। ये सारी प्रक्रियायें आलाप के विभिन्न अंगों का निष्पादन करती हैं जिसमें गति की विभिन्न लय प्रक्रिया के साथ साथ विभिन्न वाद्य वादन के बोलों जैसे दिर दिर नोम् तोम् इत्यादि का प्रयोग निहित होता है। आधुनिक वाद्य वादन में आलाप जोड़ इत्यादि इसी रागालाप व रूपकालाप का परिवर्धित रूप रूप माना जा सकता है।
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