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राग

स्वरों की ऐसी मधुर तथा आकर्षक ध्वनि जो सुनिश्चित् आरोह-अवरोह, जाति, समय, वर्ण, वादी-संवादी, मुख्य-अंग आदि नियमों से बद्घ हो और जो वायुमंडल पर अपना प्रभाव अंकित करने मे समर्थ हो। वातावरण पर प्रभाव डालने के लिये राग मे गायन, वादन के अविभाज्य 8 अंगों का प्रयोग होना चाहिये।

ये 8 अंग या अष्टांग इस प्रकार हैं: स्वर, गीत, ताल और लय, आलाप, तान, मींड, गमक एवं बोलआलाप और बोलतान। उपर्युक्त 8 अंगों के समुचित प्रयोग के द्वारा ही राग को सजाया जाता है।

राग क्या हैं :

राग संगीत की आत्मा हैं, संगीत का मूलाधार। राग शब्द का उल्लेख भरत नाट््य शास्त्र में भी मिलता है। रागों का सृजन बाईस श्रुतियों के विभिन्न प्रकार से प्रयोग कर, विभिन्न रस या भावों को दर्शाने के लिए किया जाता है। प्राचीन समय में रागों को पुरूष व स्त्री रागों में अर्थात राग व रागिनियों में विभाजित किया गया था।सिऱ्फ यही नहीं, कई रागों को पुत्र राग का भी दर्जा प्राप्त था।उदाहरणत: राग भैरव को पुरूष राग, और भैरवी, बिलावली सहित कई अन्य रागों को उसकी रागिनियॉं तथा राग ललित, बिलावल आदि रागों को इनके पुत्र रागों का स्थान दिया गया था।बाद में आगे चलकर पं व़िष्णु नारायण भातखंडे ने सभी रागों को दस थाटों में बॉंट दिया।अर्थात एक थाट से कई रागों की उत्पत्ति हो सकती थी। अगर थाट को एक पेड़ माना जाए व उससे उपजी रागों को उसकी शाखाओं के रूप में देखा जाए तो गलत न होगा। उदाहरणत: राग शंकरा, राग दुर्गा, राग अल्हैया बिलावल आदि राग थाट बिलावल से उत्पन्न होते हैं। थाट बिलावल में सभी स्वर शुद्ध माने गए हैं अत: तकनीकी दृष्टि से इस थाट से उपजे सभी रागों में सारे स्वर शुद्ध प्रयोग किए जाने चाहिए। मगर दस थाटों के इस सिद्धांत के बारे में कई मतांतर हैं क्यों कि कुछ राग किसी भी थाट से मेल नहीं खाते मगर उन्हें नियमरक्षा हेतु किसी न किसी थाट के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।

किसी भी राग में ज़्यादा से ज़्यादा सात व कम से कम पॉंच स्वरों का प्रयोग करना ज़रूरी है।इस तरह रागों को मूलत: ३ जातियों में विभाजित किया जा सकता है...
१) औडव जाति जहॉं राग विशेष में पॉंच स्वरों का प्रयोग होता हो 
२) षाडव जाति जहॉं राग में छ: स्वरों का प्रयोग होता हो
३) संपूर्ण जाति जहॉं राग में सभी सात स्चरों का प्रयोग किया जाता हो।

राग के स्वरूप को आरोह व अवरोह गाकर प्रदर्शित किया जाता है जिसमें राग विशेष में प्रयुक्त होने वाले स्वरों को क्रम में गाया जाता है।

उदाहरण के लिए राग भूपाली का आरोह कुछ इस तरह है:
सा रे ग प ध सा।
किसी भी राग में दो स्वरों को विशेष महत्व दिया जाता है।इन्हें वादी स्वर व संवादी स्वर कहते हैं। वादी स्वर को राग का राजा भी कहा जाता है क्यों कि राग में इस स्वर का बहुतायत से प्रयोग होता है। दूसरा महत्वपूर्ण स्वर है संवादी स्वर जिसका प्रयोग वादी स्वर से कम मगर अन्य स्वरों से अधिक किया जाता है। इस तरह किन्हीं दो रागों में जिनमें एक समान स्वरों का प्रयोग होता हो, वादी और संवादी स्वरों के अलग होने से राग का स्वरूप बदल जाता है। उदाहरणत: राग भूपाली व देशकार में सभी स्वर समान हैं मगर वादी व संवादी स्वर अलग होने के कारण इन रागों में आसानी से फ़र्क बताया जा सकता है।

हर राग में एक विशेष स्वर समुह के बार बार प्रयोग से उस राग की पहचान दर्शायी जाती है। जैसे राग हमीर में 'ग म ध' का बार बार प्रयोग किया जाता है और ये स्वर समूह राग हमीर की पहचान हैं।

मुगल़कालीन शासन के दौरान ही शायद रागों के गाने बजाने का निर्धारित समय कभी प्रचलन में आया। जिन रागों को दोपहर के बारह बजे से मध्यरात्रि तक गाया बजाया जाता था उन्हें पूर्व राग कहा गया और मध्यरात्रि से दोपहर के बीच गाए बजाए जाने वाले रागों को उत्तर राग कहा गया। कुछ राग जिन्हें भोर या संध्याकालीन समय में गाया जाता था उन्हें संधिप्रकाश राग कहा गया। यही नहीं कुछ राग ऋतुप्रधान भी माने गए। जैसे राग मेघमल्हार वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला राग है। इसी तरह राग बसंत को बसंत ऋतु में गाए जाने की प्रथा है।

हमारी संस्कृति का एक स्तंभ भारतीय शास्त्रीय संगीत, जीवन को संवारने और सुरुचिपूर्ण ढंग से जीने की कला है। यह आधार है हर तरह के संगीत का साथ ही ऐसी गरिमामयी धरोहर है जिससे लोक और लोकप्रिय संगीत की अनेक धाराएँ निकलती हैं जो न सिर्फ हमारे तीज त्योहारों में राग रंग भरती हैं बल्कि हमारे विभिन्न संस्कारों और अवसरों में भी उल्लासमय बनाते हुए अनोखी रौनक प्रदान करती हैं।

रागों का सृजन

रागों का सृजन बाईस श्रुतियों के विभिन्न प्रकार से प्रयोग, विभिन्न रस या भावों को दर्शाने के लिए किया जाता है। प्राचीन समय में रागों को पुरुष व स्त्री रागों में अर्थात राग व रागिनियों में विभाजित किया गया था। सिर्फ़ यही नहीं, कई रागों को पुत्र राग का भी दर्जा प्राप्त था। उदाहरणत: राग भैरव को पुरुष राग और भैरवी, बिलावली सहित कई अन्य रागों को उसकी रागिनियाँ तथा राग ललित, बिलावल आदि रागों को इनके पुत्र रागों का स्थान दिया गया था। बाद में आगे चलकर पंडित विष्णुनारायण भातखंडे ने सभी रागों को दस थाटों में बॉंट दिया। अर्थात एक थाट से कई रागों की उत्पत्ति हो सकती थी। अगर थाट को एक पेड़ माना जाए व उससे उपजी रागों को उसकी शाखाओं के रूप में देखा जाए तो यह ग़लत नहीं होगा। उदाहरणत: राग शंकरा, राग दुर्गा, राग अल्हैया बिलावल आदि राग थाट बिलावल से उत्पन्न होते हैं। थाट बिलावल में सभी स्वर शुद्ध माने गए हैं। अत: तकनीकी दृष्टि से इस थाट से उपजे सभी रागों में सारे स्वर शुद्ध प्रयोग किए जाने चाहिए। किंतु दस थाटों के इस सिद्धांत के बारे में कई मतांतर हैं, क्योंकि कुछ राग किसी भी थाट से मेल नहीं खाते, किंतु उन्हें नियमरक्षा हेतु किसी न किसी थाट के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।

'अभिनव रागमंजरी' में राग की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-
योऽयं ध्वनि-विशेषस्तु स्वर-वर्ण-विभूषित:।
रंजको जनचित्तानां स राग कथितो बुधै:।।

अर्थात्
स्वर और वर्ण से विभूषित ध्वनि, जो मनुष्यों का मनोरंजन करे, राग कहलाता है।

Comments

Pooja Tue, 14/09/2021 - 14:55

'राग' शब्द संस्कृत की 'रंज्' धातु से बना है। रंज् का अर्थ है रंगना। जिस तरह एक चित्रकार तस्वीर में रंग भरकर उसे सुंदर बनाता है, उसी तरह संगीतज्ञ मन और शरीर को संगीत के सुरों से रंगता ही तो हैं। रंग में रंगजाना मुहावरे का अर्थ ही है कि सब कुछ भुलाकर मगन हो जाना यालीन हो जाना। संगीत का भी यही असर होता है। जो रचना मनुष्य के मन को आनंद के रंग से रंग दे वही राग कहलाती है।

हर राग का अपना एक रूप, एक व्यक्तित्व होता है जो उसमें लगने वाले स्वरों और लय पर निर्भर करता है। किसी राग की जाति इस बात सेे निर्धारित होती हैं कि उसमें कितने स्वर हैं। आरोह का अर्थ है चढना औरअवरोह का उतरना। संगीत में स्वरों को क्रम उनकी ऊँचाई-निचाई केआधार पर तय किया गया है। ‘सा’ से ऊँची ध्वनि ‘रे’ की, ‘रे’ से ऊँचीध्वनि ‘ग’ की और ‘नि’ की ध्वनि सबसे अधिक ऊँची होती है। जिस तरह हम एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए किसी मकान की ऊपरी मंजिलतक पहुँचते हैं उसी तरह गायक सा-रे-ग-म-प-ध-नि-सां का सफर तय करते हैं। इसी को आरोह कहते हैं। इसके विपरीत ऊपर से नीचे आने को अवरोह कहते हैं। तब स्वरों का क्रम ऊँची ध्वनि से नीची ध्वनि की ओर होता है जैसे सां-नि-ध-प-म-ग-रे-सा। आरोह-अवरोह में सातों स्वर होने पर राग ‘सम्पूर्ण जाति’ का कहलाता है। पाँच स्वर लगने पर राग ‘औडव’और छःस्वर लगने पर ‘षाडव’ राग कहलाता है। यदि आरोह में सातऔर अवरोह में पाँच स्वर हैं तो राग ‘सम्पूर्ण औडव’ कहलाएगा। इसतरह कुल 9 जातियाँ तैयार हो सकती हैं जिन्हें राग की उपजातियाँ भीकहते हैं। साधारण गणित के हिसाब से देखें तो एक ‘थाट’ के सात स्वरों में 484 राग तैयार हो सकते हैं। लेकिन कुल मिलाकर कोई डे़ढ़ सौ रागही प्रचलित हैं। मामला बहुत पेचीदा लगता है लेकिन यह केवल साधारण गणित की बात है। आरोह में 7 और अवरोह में भी 7 स्वर होनेपर ‘सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति’ बनती है जिससे केवल एक ही राग बनसकता है। वहीं आरोह में 7 और अवरोग में 6 स्वर होने पर ‘सम्पूर्णषाडव जाति’ बनती है।

कम से कम पाँच और अधिक से अधिक ७ स्वरों से मिल कर राग बनताहै। राग को गाया बजाया जाता है और ये कर्णप्रिय होता है। किसी रागविशेष को विभिन्न तरह से गा-बजा कर उसके लक्षण दिखाये जाते है,जैसे आलाप कर के या कोई बंदिश या गीत उस राग विशेष के स्वरों केअनुशासन में रहकर गा के आदि।

राग का प्राचीनतम उल्लेख सामवेद में है। वैदिक काल में ज्यादा रागप्रयुक्त होते थे, किन्तु समय के साथ साथ उपयुक्त राग कम होते गये।सुगम संगीत व अर्धशास्त्रीय गायनशैली में किन्ही गिने चुने रागों व तालोंका प्रयोग होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में रागों की भरपूर विभिन्नतापाई जाती है।

हिन्दुस्तानी पद्धति इस्लामी राजाओं की छत्रच्छाया में पली बढी, अतःइसमें पश्चिमी ‌और इस्लामी संगीत का सम्मिश्रण हुआ। इसके अलावाइस्लामी शासन के तहत कर्मकांडों में संगीत की प्रकृति बदलती गई।नतीजतन हिन्दुस्तानी संगीत व राग अपने पुरातन कर्नाटिक स्वरूप सेकाफी भिन्न हैं।

रागों का विभाजन मूलरूप से थाट से किया जाता है। हिन्दुस्तानी पद्धतिमें ३२ थाट हैं, किन्तु उनमें से केवल १० का प्रयोग होता है। कर्नाटकसंगीत में ७२ थाट माने जाते हैं।

शब्दावली

'राग' एक संस्कृत शब्द है । इसकी उत्पत्ति 'रंज' धातु से हुई है, जिसकाअर्थ है - 'रंगना' । महाभारत काल में इसका अर्थ प्रेम और स्नेह आदिअर्थों में भी हुआ है।

इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग बृहद्देशी में हुआ, जहाँ इसका अर्थ "ध्वनिका कर्णप्रिय आरोह-अवरोह" बताया गया है ।

'रागिनी' राग का स्त्री रूप ही समझा गया है ।

राग की प्रकृति

राग का मूल रूप हिन्दुस्तानी संगीत के 'बिलावल ठाट' को मान गया है ।इसके अंतर्गत सुर 'शुद्ध' और 'कोमल' दो भागों में विभक्त हैं