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ग्राम

भारतीय संगीत के इतिहास में भरत का नाट्यशास्‍त्र एक महत्त्वपूर्ण सीमाचिह्न है। नाट्यशास्‍त्र एक व्‍यापक रचना या ग्रंथ है जो प्रमुख रूप से नाट्यकला के बारे में है लेकिन इसके कुछ अध्‍याय संगीत के बारे में हैं। इसमें हमें सरगम, रागात्‍मकता, रूपों और वाद्यों के बारे में जानकारी मिलती है। तत्‍कालीन समकालिक संगीत ने दो मानक सरगमों की पहचान की। इन्‍हें ग्राम कहते थे। ‘ग्राम’ शब्द संभवत: किसी समूह या संप्रदाय उदाहरणार्थ एक गाँव के विचार से लिया गया है। यही संभवत: स्‍वरों की ओर ले जाता है जिन्‍हें ग्राम कहा जा रहा है। इसका स्‍थूल रूप से सरगमों के रूप में अनुवाद किया जा सकता है।

  • उस समय दो ग्राम प्रचलन में थे। इनमें से एक को षडज ग्राम और अन्‍य को मध्‍यम ग्राम कहते थे। दोनों के बीच का अंतर मात्र एक स्‍वर पंचम में था। अधिक सटीक रूप से कहें तो हम यह कह सकते हैं कि मध्‍यम ग्राम में पंचम षडज ग्राम के पंचम से एक श्रुति नीचे था।
  • इस प्रकार से श्रुति मापने की एक इकाई है या एक ग्राम अथवा एक सरगम के भीतर विभिन्‍न क्रमिक तारत्‍वों के बीच एक छोटा-सा अंतर है। सभी व्‍यावहारिक प्रयोजनों के लिये इनकी संख्‍या 22 बताई जाती है। प्रत्‍येक ग्राम से अनुपूरक सरगम लिये गए हैं। इन्‍हें मूर्छना कहते हैं। ये एक अवरोही क्रम में बजाए या गाए जाते हैं। एक सरगम में सात मूलभूत स्‍वर होते हैं, अत: सात मूर्छना हो सकते हैं।

लगभग ग्‍यारहवीं शताब्‍दी से मध्‍य और पश्चिम एशिया के संगीत ने भारत की संगीत की परंपरा को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे इस प्रभाव की जड़ गहरी होती चली गई और कई परिवर्तन हुए। इनमें से एक महत्‍त्‍वपूर्ण परिवर्तन था- ग्राम और मूर्छना का लुप्‍त होना।

लगभग 15वीं शताब्‍दी के आसपास, परिवर्तन की यह प्रक्रिया सुस्‍पष्‍ट हो गई थी, ग्राम पद्धति अप्रचलित हो गई थी। मेल या थाट की संकल्‍पना ने इसका स्‍थान से लिया था। इसमें मात्र एक मानक सरगम है। सभी ज्ञात स्‍वर एक सामान्‍य स्‍वर ‘सा’ तक जाते हैं।

लगभग अठारहवीं शताब्‍दी तक यहाँ तक कि हिंदुस्तानी संगीत के मानक या शुद्ध स्‍वर भिन्‍न हो गए थे। अठारहवीं शताब्‍दी से स्‍वीकृत, वर्तमान स्‍वर है:

सा रे ग म प ध नि