प्रवीण संगीताचार्य (VIII Year) - कत्थक (शास्त्र पाठ्यक्रम ) द्वितीय प्रश्नपत्र
1. सप्तम वर्ष के पाठ्यक्रम में दिये गए प्रथम प्रश्न पत्र के अनुच्छेद एक में निर्धारित नृत्य सम्बन्धी समस्त पारिभाषिक शब्दों की विस्तृत व्याख्या के अतिरिक्त निम्नलिखित पारिभाषिक शब्दों की विस्तृत व्याख्या, उनका स्पष्टीकरण तथा उनका तुलनात्मक एवं आलोचनात्मक ज्ञान- थाप, घुमरिया, अराल, अल्पदम, अलीढ़, कुट्टन, अत्प्लावन, उपकंठ, उठान, उपांग, किंकिणी, भ्रमरी, उत्प्लावन भ्रमरी, संवाद भ्रमरी, कुंचित, कुंचित भ्रमरी, चक्र भ्रमरी, अनुवृत दृष्टि, आलोकित दृष्टि, अवलोकित दृष्टि, प्रलोकित दृष्टि, मीलित दृष्टि, सम दृष्टि, साची दृष्टि, चक्रमण, चलांचल, चलनचारी, तृयस्त्र, धरू, धम्मिल, पदरी, पाणि, पाद, विन्यास, प्रत्यंग, प्रपद, मोहित, रंग, सरा, सर्पयान, सम्पुट, तिरष्चीव ग्रिवा, परिवर्तित ग्रिवा, प्रकम्पित ग्रिवा, सुन्दरी ग्रिवा, उरमई, सुलप, उरप, तिरप, गुद्ध मुद्रा, धिलाग, थर्र, जमनका, स्तुति, प्रमिलू, पुहुप, पुजरी, गति, चलन, फिरन, शेमा, पिंडी आदि।
2. नृत्य सम्बन्धी समस्त मुद्राआें का विस्तृत ज्ञान एवं विभिन्न नृत्यों में उनका प्रयोग, विभिन्न मुद्राओं का रस और भाव से संबन्ध।
3. ‘मंडल’ शब्द की व्याख्या, इसके भेदों का विस्तृत, आलोचनात्मक तथा प्रयोगात्मक ज्ञान। विभिन्न नृत्यों में मंडल का स्थान और इसकी उपयोगिताएं। रस तथा भाव के साथ मंडल का सम्बन्ध।
4. ‘चारी’ शब्द की व्याख्या। इसके भेदों का विस्तृत आलोचनात्मक तथा प्रयोगात्मक ज्ञान। विभिन्न नृत्यों मे चारी का स्थान तथा इसकी उपयोगिताए। रस और भाव के साथ चारी से सम्बन्ध।
5. ‘करण’ शब्द की व्याख्या, इसमें भेदों का विस्तृत, आलोचनात्मक तथा प्रयोगात्मक ज्ञान। विभिन्न नृत्यों में करण का महत्व और इसकी उपयोगितायें। रस और भाव के साथ करण का सम्बन्ध।
6. ‘अंगहार’ शब्द की व्याख्या। इसके भेदों का विस्तृत, आलोचनात्मक तथा प्रयोगात्मक ज्ञान। विभिन्न नृत्यों में अंगहार का महत्व और इसकी उपयोगिताएं। रस और भाव के साथ इसका सम्बन्ध।
7. शिर, नेत्र, पुततियां, पलम, भृकुटि, नासिका, कपोल, होंठ, दन्त, मुख, चिबुक, ग्रिवा, उर, पार्श्व, जठर, कटि जंघा, पंजा आदि शारीरिक अंगों तथा उपांगो के संचालन के सिद्धान्त। इसके विभिन्न प्रकारों के साथ रस एवं भाव का सम्बन्ध।
8. कत्थक नृत्य के प्रत्येक घरानों की उत्पत्ति और विकास, प्रत्येक घरानों के बोलों का विस्तृत ज्ञान, उनकी विशेषताएं एवं तत्सम्बन्धी आलोचनाएं और स्पष्टीकरण।
9. नृत्य के बोलों तथा तोड़ों की विकास विधि तथा आड़, कुआड़, बिआड़ आदि लभकारियों की पद संचालन द्वारा प्रदर्शित करने की विधि समझाना।
10. ‘लिपि’ शब्द की व्याख्या तथा नृत्य में इसका महत्व, नृत्य सम्बन्धी समस्त बोलों की सही और स्पष्ट रूप से लिपिबद्ध करने का विस्तृत ज्ञान। नृत्य सम्बन्धी एक आदर्श लिपि पद्धिति के निर्माण पर सुझाव।
11. पाठ्यक्रम में निर्धारित समस्त तालों में तथा विभिन्न रागों में लहरों (नगमों) की जानकारी तथा उन्हें लिपिबद्ध करने तथा बजाने का ज्ञान।
12. निम्नलिखित ठुमरी अंग के रागों का संक्षिप्त स्वर विस्तार सहित पूर्ण परिचय तथा इनमें से किन्हीं चार गीतों को लिपिबद्ध करने का ज्ञान- पहाड़ी, आसा, मांड, जंगला, सावनी, सोरठ, गारा तथा बिहारी।
13. कर्नाटक ताल पद्धति का पूर्ण ज्ञान, इसके तालों का विस्तृत अध्ययन, इसके विभिन्न भेद, रूप एवं इन्हें लिपिबद्ध करने की जानकारी, उत्तर भारतीय तालों से कर्नाटक तालों की तुलना।
14. एकल नृत्य (solo dance) और सामूहिक नृत्य की पृथक.पृथक व्याख्या, इन दोनों की भिन्नभिन्न विशेषताएं, आवश्यकताएं और महत्व।
15. पिंगल शास्त्र का ज्ञान। छन्द तथा लयकारी का विस्तृत ज्ञान तथा नृत्य में इनका महत्व। रूपपदी, विषमपदी तथा मिश्रपदी तालों का ज्ञान।
16. कत्थक नृत्य के विकास में वृन्दावन का स्थान और योगदान।
17. कत्थक नृत्य की सही और शुद्ध शैली का विस्तृत ज्ञान। वर्तमान समय में कत्थक नृत्य की स्थिति और इसका भविष्य।
18. नृत्य सम्बन्धी विषयों पर लेख लिखने की पूर्ण क्षमता।
महाविद्यालय
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