Skip to main content

Sundarkauns

यह राग बहुत ही प्रभावी और चित्ताकर्षक है। राग मालकौंस के कोमल धैवत की जगह जब शुद्ध धैवत का प्रयोग होता है तब राग सुन्दरकौंस की उत्पत्ति होती है।

स्वरों के इस समुदाय (सा ग१ म ध नि१ सा' - सा' नि१ ध म ग१ सा) को राग चंद्रकौंस(बागेश्री अंग) के नाम से क्वचित ही गाया जाता है। आचार्य तनरंग जी की राय में राग का उक्त नामकरण (चंद्रकौंस (बागेश्री अंग)) अनुचित प्रतीत होता है क्योंकि उक्त स्वर समुदाय में राग चन्द्रकौंस में लगने वाला निषाद शुद्ध वर्ज्य है साथ ही अवरोह में बागेश्री अंग जैसे - सा' नि१ ध म प ध म ग१ रे सा भी अनुपस्थित है। और इसी गलत नामकरण के कारण यह राग (चंद्रकौंस(बागेश्री अंग)) ज्यादा प्रचलित नहीं हो पाया।

पर इस राग की सुंदरता को देखते हुए आचार्य तनरंग जी ने इस राग का नाम सुन्दरकौंस रखा और कई बंदिशों की रचना की। इस राग में मध्यम और षड्ज के साथ ही शुद्ध धैवत पर भी ठहराव किया जाता है। शुद्ध धैवत की उपस्थिति के कारण यह राग मालकौंस से कुछ कम गंभीर है। इस राग का विस्तार तीनो सप्तकों में किया जा सकता है। यह स्वर संगतियाँ राग सुन्दरकौंस का रूप दर्शाती हैं -

सा ,नि१ ,नि१ ,ध ,नि१ सा ; ग१ म ग१ सा ,नि१ ; सा ; ग१ म ध ; ध नि१ ध ; म ग१ म ग१ सा ; ग१ सा ,नि१ सा ,ध ,नि१ ,ध ; ,म ,ध ,नि१ सा ; ग१ म ग१ सा ; ग१ म नि१ ध ; म ध नि१ सा' ; म ध सा' ; नि१ नि१ ध ; नि१ ध म ; ध ग१ म ग१ ; म ग१ सा;

राग जाति

आरोह अवरोह
सा ग१ म ध नि१ सा' - सा' नि१ ध म ग१ म ग१ सा ,नि१ सा;