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शहनाई

शहनाई

शहनाई भारत के सबसे लोकप्रिय वाद्ययंत्र में से एक है जिसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है। स्वर्गीय उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां भारत में शहनाई के सबसे प्रसिद्ध वादक समझे जाते हैं। 

शहनाई भारत के सबसे लोकप्रिय वाद्ययंत्र में से एक है जिसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है। स्वर्गीय उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां भारत में शहनाई के सबसे प्रसिद्ध वादक समझे जाते हैं।

यह लकड़ी से बना होता है, जिसके एक सिरे पर दोहरा ईख होता है और दूसरे सिरे पर एक धातु या लकड़ी की परत लगी होती है।  इसकी ध्वनि को शुभता और पवित्रता की भावना को बनाए रखने और बनाए रखने के लिए सोचा जाता है, और परिणामस्वरूप, विवाह, जुलूस और मंदिरों में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, हालांकि यह संगीत समारोहों में भी खेला जाता है। शहनाई दक्षिण भारत के नादस्वरम के समान है।

शहनाई की विशेषताएं

यह ट्यूबलर इंस्ट्रूमेंट धीरे-धीरे निचले सिरे की ओर बढ़ता है। इसमें आमतौर पर छह और नौ छेद होते हैं। यह चौगुनी नरकट के एक सेट को काम में लाता है, जिससे यह चौगुनी ईख की लकड़ी से बनता है। सांस को नियंत्रित करके, उस पर विभिन्न धुनें बजाई जा सकती हैं।

शहनाई में दो ओक्टेव्स की सीमा होती है, ए के नीचे मध्य सी से लेकर ए वन लाइन तक ट्रेबल क्लीफ़ (वैज्ञानिक पिच अंकन में ए 3 से ए 5)।

अक्सर, साधन का फ्लेयर्ड ओपन एंड मेटल धातु से बना होता है जबकि इसका शरीर लकड़ी या बांस से बना होता है; हालाँकि, वे विशेष रूप से इस फैशन में नहीं बने हैं। 

शहनाई की उत्पत्ति

माना जाता है कि शहनाई का विकास पुंगी (लकड़ी से बने लोक वाद्ययंत्र जो मुख्य रूप से साँप के लिए आकर्षक होता है) में सुधार करके किया गया है।

शहनाई की उत्पत्ति का एक अन्य सिद्धांत यह है कि यह नाम "सुर-नाल" शब्द का एक संशोधन है। नाल/नाली/नाद शब्द का प्रयोग कई भारतीय भाषाओं में पाइप या ईख करने के लिए किया जाता है। "सुर" शब्द का अर्थ है स्वर या धुन-संगीतमय नोट या बस संगीत- और इसे कई भारतीय वाद्यों के नाम के लिए उपसर्ग के रूप में प्रयोग किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि "सुर-नाल" ने अपना नाम "सुरना/ ज़र्ना" दिया है, यह वह नाम है जिसके द्वारा रीड-पाइप पूरे मध्य पूर्व और पूर्वी यूरोप में जाना जाता है। शहनाई आमतौर पर पारंपरिक उत्तर भारतीय शादियों में एवं ख़ुशी के मौक़ों पर बजाई जाती है और दुल्हन के साथ उसके पति के घर के लिए माता-पिता के घर छोड़ने से जुड़ी होती है।  कभी-कभी, दो शहनाई को एक साथ बांधा जा सकता है, जिससे यह प्राचीन ग्रीक औलोस के समान एक डबल शॉल बन जाता है। 

 

पश्चिम भारत और तटीय कर्नाटक में बजाई जाने वाले शहनाई के समकक्ष इस क्षेत्र के लिए स्वदेशी हैं। शेनई खिलाड़ी गोयन / कोंकणी और पश्चिमी तट के साथ मंदिरों का एक अभिन्न अंग थे और खिलाड़ियों को वजंत्री कहा जाता है और उन्हें मंदिरों को दी जाने वाली सेवाओं के लिए भूमि आवंटित की जाती थी। 

उल्लेखनीय भारतीय शहनाई वादक

  • बिस्मिल्लाह खान
  • एस बल्लेश
  • अनंत लाल
  • अली अहमद हुसैन खान

Comments

Pooja Mon, 19/07/2021 - 21:53

शहनाई एक प्रकार का वाद्य यंत्र है
* शहनाई भारत के सबसे लोकप्रिय वाद्ययंत्र में से एक है
* शहनाई का प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है
* शहनाई एक ऐसी वाद्य यंत्र है जिसकी ध्वनि मांगलिक मानी जाती है
* सागवान की लकड़ी से बना यह एक सुषिर वाद्य है
* शहनाई एक खोखली नली की तरह होती है
* शहनाई का एक सिरा अधिक चौड़ा तथा दूसरा पतला होता है
* शहनाई के संकरे सिरे पर विशेष प्रकार की पत्तियों और दलदली घासों से डैने के आकार की बनी 1 सेंटीमीटर लम्बी दो रीड या पत्तियाँ लगी होती है
* सुषिर यानी फूंक से बजाया जाने वाला वाद्ययंत्र  है   
* उस्ताद बिस्मिल्ला खां को शहनाई का जादूगर कहा जाता है
* विवाह या किसी भी प्रकार के शुभ अवसर पर शहनाई बजाया जाता है
* शहनाई के सुर से ही किसी भी शुभ कार्य करने की परंपरा भारतीय समाज में रही है
* आधुनिक काल में गायन, वादन तथा नृत्य की संगति में शहनाई का प्रयोग भी किया जाता है
*

शहनाई से मिलते जुलते कई वाद्ययंत्रों का प्रचलन हिन्दुस्तान में रहा है जैसे बांसुरी-वंशी , सुंदरी, नादस्वरम् आदि
*

शहनाई दरअसल अरबी-फारसी के मेल से बना शब्द है। अरबी में नाई [nay] दरअसल फूंक मारकर बजाए जाने वाले वाद्य के लिए प्रयोग में आने वाला शब्द है
*

शहनाई शब्द भी शाह+नाई के मेल से बना है अर्थात हवा से [ फूंक से ] बजाए जाने वाले सभी वाद्यों का सरताज, सबसे श्रेष्ठ
*

शहनाई के अलग-अलग देशों में अलग अलग नाम जैसे

  1. > उज्बेकिस्तान, किरगिजिस्तान, ताजिकिस्तान में सुरनाई
  2. > ईरान और अफगानिस्तान में सोरना
  3. > कश्मीर पाकिस्तान आदि जगहों पर सुरनाई के साथ शहनाई भी
  4. > आरमीनिया, दागिस्तान, अज़रबैजान, तुर्की, सीरिया, इराक़ आदि में ज़ुरना या ज़ोरना
  5. > ग्रीस, बुल्गारिया में ज़ोरनस
  6. > मेसिडोनिया में ज़ुरला और रोमानिया में सुरला आदि

 

* भारत के प्रसिद्ध शहनाई वादकों के नाम इस प्रकार हैं-

> उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान
> पंडित रामसहाय मिश्र
> कृष्ण राम चौधरी
> अली अहमद हुसैन
 

Pooja Mon, 19/07/2021 - 22:13
शहनाई के शहंशाह

डुमराव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबारी संगीतकार पैगंबर खान के घर में 21 मार्च 1916 को किलकारियां गूंजी तो नवजात का चेहरा देखते ही दादा रसूल बख्श ने कहा-बिस्मिल्लाह! और फिर यही उनका नाम पड़ गया। उन दिनों रियासतों के साथ ही किसी भी शुभ या मांगलिक कार्यक्रम की बिस्मिल्लाह (श्रीगणेश) शहनाई वादन से होती थी, लेकिन वे शहनाई के बिस्मिल्लाह बन गए। शहनाई भी अपने भाग्य पर इतराने लगी। बिस्मिल्लाह खान ने अपनी सांस और फूंक से उसे शुभ मुहूर्तों पर बजने की परंपरा से निकालकर शास्त्रीय संगीत की महफिलों में वह सम्मान दिलाया, जिसकी हकदार वह सदियों से थी। वैसे शहनाई वादन तो इस मुसलिम परिवार में पांच पीढ़ियों से चला आ रहा था और यह खानदान राग दरबारी में सिद्धहस्त माना जाता था। शहनाई नवाज उस्ताद सालार हुसैन खान को भोजपुर रजवाड़े और नक्कारखाने में शहनाई वादक का सम्मान हासिल था, तो उनके बेटे रसूल बख्श भोजपुर रियासत के दरबारी संगीतज्ञ थे।

पैगंबर खान के बड़े पुत्र का नाम शम्सुद्दीन था। इसलिए बिहार के डुमराव में ठठेरी बाजार स्थित किराए के मकान में मिठ्ठन बाई के गर्भ से जन्मे छोटे बेटे का नाम उन्होंने कमरुद्दीन रखा, लेकिन कमरुद्दीन को पहचान तो अपने दादा रसूल बख्श के दिए नाम बिस्मिल्लाह से ही मिलनी थी। मिठ्ठन बाई अपने बच्चे को शहनाई वादक नहीं बनाना चाहती थीं। वे पति से कहतीं, क्यों बच्चे को इस काम में झोंक रहे हो? लेकिन पैगंबर खान अडिग थे कि बच्चे को शहनाई वादक ही बनाना है। छह साल की उम्र में ही बिस्मिल्लाह को काशी ले जाया गया, जहां गंगा तट उनकी संगीत शिक्षा शुरू हुई और काशी विश्वनाथ मंदिर से उनका जुड़ाव हो गया। काशी विश्वनाथ मंदिर के अधिकृत शहनाई वादक अली बख्श विलायती उनके उस्ताद बने और उनका घर बिस्मिल्लाह का गुरुकुल।

संगीतमय माहौल में नन्हे बिस्मिल्लाह कंचे-गोली खेलते और मुंह से उस्ताद की सिखाई बंदिश का रियाज करते। इसके बावजूद उनके बाजे में आकर्षण और वजन नहीं आया, तो उस्ताद अली बख्श ने उनसे कहा कि व्यायाम किए बिना सांस के इस बाजे में असर पैदा नहीं होगा। बिस्मिल्लाह ने उस्ताद की इस सीख की गांठ बांध ली और भोर में गंगा घाट पर जाकर व्यायाम से शरीर को गठीला बनाने लगे। बिस्मिल्लाह खान के दो ही काम थे- व्यायाम करना और गंगा के किनारे बैठकर रियाज करना।

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान और बिस्मिल्लाह खान समूचे देश की आवाज बन गए। चौदह साल की उम्र में इलाहाबाद की संगीत परिषद में उन्होंने शहनाई वादन की पहली प्रस्तुति दी। 1937 में अखिल भारतीय संगीत समारोह, कोलकाता में बिस्मिल्लाह की शहनाई के छिद्रों से जब भारतीय रागों के स्वर निकले, तो सदियों पुरानी शहनाई में समाई आवाज शास्त्रीय हो गई। फिर तो उनके पुरातन वाद्य की स्वरलहरियां देश-विदेश में प्यार और शांति के राग छेड़ती चली गर्इं।

धर्म और जाति जैसे मनोभावों और बंधनों से ऊपर उठकर बिस्मिल्लाह खान की शहनाई पूरे भारत में देस राग गाने लगी। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर बिस्मिल्लाह वृंदावनी सांरग के स्वर छेड़ते, तो होली की मस्ती में राग काफी में होली की धुन बजाते। विश्वनाथ मंदिर में उनकी शहनाई पर राग मालकौंस तो गाहे-बगाहे गूंजता। 1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लाल किले पर तिरंगा फहर रहा था, तब उनकी शहनाई भी वहां आजादी का संदेश बांट रही थी। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह खान का शहनाई वादन एक प्रथा बन गई थी। 26 जनवरी, 1950 को भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह में भी उनका राग काफी कार्यक्रम की जान बन इतिहास में शुमार हो गया।

बिस्मिल्लाह खान ने जिस जमाने में शहनाई की तालीम लेनी शुरू की थी, उस समय गाने-बजाने के काम को इज्जत की नजरों से नहीं देखा जाता था। शहनाई वादकों को इमारतों या समारोह स्थलों के प्रवेश द्वार पर बिठा दिया जाता था और उनको विवाह आदि में जिस घर में बुलाया जाता था, उसके आंगन या ओटले के आगे आने नहीं दिया जाता था। बिस्मिल्लाह खान ने कजरी, चैती और झूला जैसी लोक धुनों में लोक वाद्य को रियाज से संवारा और खयाल, ठुमरी जैसी जटिल गायन विधाओं, जिन्हें तब तक शहनाई के विस्तार से बाहर माना जाता था, में परिवर्तन कर शहनाई को भारतीय शास्त्रीय संगीत का केंद्रीय स्वर बनाया। उन्होंने ईरान, इराक, अफगानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा, पूर्व सोवियत संघ, पश्चिम अफ्रीका, हांगकांग जैसे मुल्कों में शहनाई का तिलिस्म फैलाया।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और शांति निकेतन ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी, लेकिन संगीत, सुर और नमाज-इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह खान के लिए सारे इनाम-इकराम, सम्मान बेमानी थे। उस्ताद विलायत खान के सितार और पंडित वीजी जोग के वायलिन के साथ उनकी शहनाई जुगलबंदी के एलपी रिकॉर्ड्स ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले थे। इन्हीं एलबमों के बाद जुगलबंदियों का दौर चला। सरोद सम्राट उस्ताद अमजद अली खान के साथ उनकी आखिरी जुगलबंदी दिल्ली में अज्ञात शहीदों के नाम रही, जो आज भी एक यादगार है। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने फिल्मों में संगीत देकर घर-घर में दस्तक दी। उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’ में अपन्ना की भूमिका के लिए शहनाई बजाई तो हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए भी शहनाई पर धुनें छेड़ीं। आखिरी बार उन्होंने हिंदी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई पर मधुर तान बिखेरी। निर्देशक गौतम घोष ने उनके जीवन पर वृत्तचित्र ‘संग-ए-दिल से मुलाकात’ बनाया। खान साहब ने अपनी जिंदगी में मात्र तीन शागिर्द बनाए-बलजीत सिंह नामधारी, किरनपाल सिंह और गुरबख्श सिंह नामधारी।

पांच वक्त के नमाजी उस्ताद बिस्मिल्लाह खान विद्या की देवी सरस्वती के परम उपासक थे। उन पर लिखी किताब ‘सुर की बारादरी’ में यतींद्र मिश्र ने लिखा है कि , खान साहब कहते थे कि संगीत वह चीज है, जिसमें जात-पांत कुछ नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता। सादे पहनावे में रहने वाले बिस्मिल्लाह खान ने रागों के साथ प्रयोग कर संगीत की गाथा में नए अध्याय जोड़े। पंडित जसराज का उनके बार में कहीं था कि पहली बार उनका संगीत सुनकर वह पागल-से हो गए थे। उनके संगीत में मदमस्त करने की कला थी।

बांसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया कहते हैं, ‘अगर हम किसी संत संगीतकार को जानते हैं, तो वे थे बिस्मिल्लाह खान साहब। वे हमारी आत्मा में इस कदर रच-बस गए कि उनको अलग करना नामुमकिन है। भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान ने संगीतज्ञ के रूप में जो कुछ कमाया, वह या तो लोगों की मदद में खर्च हो गया या बड़े परिवार के भरण-पोषण में। एक समय ऐसा भी आया, जब वे आर्थिक रूप से मुश्किल में आ गए और सरकार को उनकी मदद के लिए आगे आना पड़ा। 21 अगस्त, 2006 को अपने शहर बनारस में बीमारी से जूझता यह महान रुहानी कलाकार इस नश्वर संसार से विदा हो गया। बिस्मिल्लाह खान आज अपनी खामोश शहनाई के साथ भले चिरनिद्रा में सो रहे हों, लेकिन उनकी शहनाई की स्वर-तरंगें आज भी संगीत रसिकों के कानों में गूँजती हैं।