tyagaraja ଜୀବନୀ
त्यागराज प्रसिद्ध संगीतज्ञ थे। वे 'कर्नाटक संगीत' के महान् ज्ञाता तथा भक्तिमार्ग के कवि थे। इन्होंने भगवान श्रीराम को समर्पित भक्ति गीतों की रचना की थी। उनके सर्वश्रेष्ठ गीत अक्सर धार्मिक आयोजनों में गाए जाते हैं। त्यागराज ने समाज एवं साहित्य के साथ-साथ कला को भी समृद्ध किया था। उनकी विद्वता उनकी हर कृति में झलकती है, हालांकि 'पंचरत्न' कृति को उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना कहा जाता है। त्यागराज के जीवन का कोई भी पल श्रीराम से जुदा नहीं था। वह अपनी कृतियों में भगवान राम को मित्र, मालिक, पिता और सहायक बताते थे।
तंजावुर जिले के तिरूवरूर में चार मई 1767 को पैदा हुए त्यागराज की मां का नाम सीताम्मा और पिता का रामब्रह्मम था। वह अपनी एक कृति में कहते हैं - "सीताम्मा मायाम्मा श्री रामुदु मा तंद्री" (सीता मेरी मां और श्री राम मेरे पिता हैं)। इसके गीत के जरिए शायद वह दो बातें कहना चाहते हैं। एक ओर वास्तविक माता-पिता के बारे मे बताते हैं दूसरी ओर प्रभु राम के प्रति अपनी आस्था प्रदर्शित करते हैं। एक अच्छे सुसंस्कृत परिवार में पैदा हुए और पले बढ़े त्यागराज प्रकांड विद्वान और कवि थे। वह संस्कृत ज्योतिष तथा अपनी मातृभाषा तेलुगु के ज्ञाता थे।
त्यागराज के लिए संगीत ईश्वर से साक्षात्कार का मार्ग था और उनके संगीत में भक्ति भाव विशेष रूप से उभर कर सामने आया है। संगीत के प्रति उनका लगाव बचपन से ही था। कम उम्र में ही वह वेंकटरमनैया के शिष्य बन गए और किशोरावस्था में ही उन्होंने पहले गीत 'नमो नमो राघव' की रचना की।
दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत के विकास में प्रभावी योगदान करने वाले त्यागराज की रचनाएं आज भी काफी लोकप्रिय हैं और धार्मिक आयोजनों तथा त्यागराज के सम्मान में आयोजित कार्यक्रमों में उनका खूब गायन होता है। त्यागराज ने मुत्तुस्वामी दीक्षित और श्यामाशास्त्री के साथ कर्नाटक संगीत को नयी दिशा दी और उनके योगदान को देखते हुए उन्हें त्रिमूर्ति की संज्ञा दी गयी।
संगीत के प्रति इनका लगाव
संगीत के प्रति त्यागराज का लगाव बचपन से ही था. कम उम्र में ही ये सोंती वेंकटरमनैया के शिष्य बन गए थे, जो उस समय के बहुत ही उच्चकोटि के संगीत के विद्वान थे. अपने औपचारिक संगीत शिक्षा के दौरान इन्होंने शास्त्रीय संगीत के तकनीकी पक्षों को विशेष महत्व नहीं दिया और अध्यात्मिक तथ्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया. इनके गीत-संगीत का उद्देश्य शुद्ध रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक था. किशोरावस्था में ही इन्होंने अपने पहले गीत ‘नमो नमो राघव’ की रचना की थी.
कुछ वर्षों बाद जब इन्होंने संगीत की औपचारिक शिक्षा अपने गुरु से प्राप्त कर ली तो इनको सोंती वेंकटरमनैया के द्वारा पुन: संगीत की प्रस्तुति के लिए बुलाया गया. इस समारोह में इन्होंने अपने गुरु को अपने संगीत प्रस्तुति से मंत्रमुग्ध कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने त्यागराज को राजा की तरफ से दरबारी कवि और संगीतकार के रूप में कार्य करने के लिए लिए निमंत्रण दे डाला. परन्तु इस प्रस्ताव को त्यागराज ने अस्वीकार कर दिया.
दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत के विकास में प्रभावी योगदान करने वाले त्यागराज की रचनाएं आज भी काफ़ी लोकप्रिय हैं. आज भी धार्मिक आयोजनों तथा त्यागराज के सम्मान में आयोजित कार्यक्रमों में इनका खूब गायन होता है. त्यागराज ने मुत्तुस्वामी दीक्षित और श्यामा शास्त्री के साथ कर्नाटक संगीत को नयी दिशा प्रदान की. इन तीनों के योगदान को देखते हुए ही इन्हें दक्षिण भारत में ‘त्रिमूर्ति’ की संज्ञा से विभूषित किया गया है.
दक्षिण भारत की यात्रा
तंजावुर नरेश त्यागराज की प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने त्यागराज को दरबार में शामिल होने के लिए आमंत्रित भी किया था। लेकिन प्रभु की उपासना में डूबे त्यागराज ने उनके आकर्षक प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने राजा के प्रस्ताव को अस्वीकार कर प्रसिद्ध कृति "निधि चल सुखम" यानी 'क्या धन से सुख की प्राप्ति हो सकती है' की रचना की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि त्यागराज के भाई ने श्रीराम की वह मूर्ति, जिसकी पूजा-अर्चना आदि त्यागराज किया करते थे, पास ही कावेरी नदी में फेंक दी थी। त्यागराज अपने इष्ट से अलगाव को बर्दाश्त नहीं कर सके और घर से निकल पड़े।
कृतियाँ
त्यागराज ने क़रीब 600 कृतियों की रचना करने के अलावा तेलुगु में दो नाटक 'प्रह्लाद भक्ति विजय' और 'नौका चरितम' भी लिखे। 'प्रह्लाद भक्ति विजय' जहां पांच दृश्यों में 45 कृतियों का नाटक है, वहीं 'नौका चरितम' एकांकी है और इसमें 21 कृतियां हैं। त्यागराज की विद्वता उनकी हर कृति में झलकती है। हालांकि 'पंचरत्न' कृति को उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना कहा जाता है। सैंकड़ों गीतों के अलावा उन्होंने उत्सव संप्रदाय 'कीर्तनम' और 'दिव्यनाम कीर्तनम' की भी रचनाएं कीं। उन्होंने संस्कृत में भी गीतों की रचना की। हालांकि उनके अधिकतर गीत तेलुगु में हैं।
समाधि
जो कुछ भी त्यागराज ने रचा है, वह सब कुछ अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में है। उसमें प्रवाह भी ऐसा है, जो संगीत प्रेमियों को अपनी ओर खींच लेता है। आध्यात्मिक रूप से त्यागराज उन लोगों में थे, जिन्होंने भक्ति के सामने किसी बात की परवाह नहीं की। वह अपनी कृतियों में श्रीराम को मित्र, मालिक, पिता और सहायक बताते थे। 6 जनवरी, 1847 को त्यागराज ने समाधि ले ली।
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