कत्थक नृत्य और रास
वर्तमान रास-नृत्य, कत्थक-नृत्य से प्रभावित कहे जा सकते है परन्तु हमारे विचार से यह कत्थक से संबंधित होते हुए भी स्वतंत्र है। इसका कारण शायद यह रहा कि प्राची परम्परा का प्रभाव इन नृत्यों पर भक्ति युग में भी बना रहा होगा और उसी को वल्लभ ने अपना आधार बनाया होगा। रास के प्राचीन नृत्यों में चर्चरी का उल्लेख हुआ है। यह चर्चरी नृत्य रास में आज से लगभग चालीस-पचास साल पहले तक होता रहा है, परन्तु अब लुप्त हो गया है। रास-नृत्य में धिलांग का भी उपयोग है जो बहुत ही प्रभावशाली और अनूठा है। यह कथक या किसी अन्य नृत्य-शैली में नहीं मिलता। इसी प्रकार श्री कृष्ण रास में जो घुटनों का नाच नाचते है वह भी बेजोड़ ह
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खंजरी
यह ढप का ही एक लघु रूप है। ढप की तरह इस पर भी चमड़ा मढ़ा होता है। यह मढी खाल गोह या बकरी की होती है। इसे कामड़, भील, कालबेलिया आदि बजाते हैं। इसे बजाने में केवल अंगुलियों और हथेली का भाग काम में लिया जाता है।
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ख़्याल नृत्य
ख़्याल नृत्य पश्चिमोत्तर भारत में स्थित राजस्थान राज्य के कई हिंदुस्तानी लोकनृत्य नाटकों में से एक है। ख़्याल नृत्यों का प्रचलन 16वीं सदी से है, जो लोककथाओं एवं पौराणिक कहानियों से अपनी कथावस्तु लेते हैं।
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काफी
राग काफी रात्रि के समय की भैरवी है। इस राग में पंचम बहुत खुला हुआ लगता है। राग को सजाने में कभी कभी आरोह में गंधार को वर्ज्य करते हैं जैसे - रे म प ध नि१ ध प म प ग१ रे। इस राग कि सुंदरता को बढाने के लिये कभी कभी गायक इसके आरोह में शुद्ध गंधार व निषाद का प्रयोग करते हैं, तब इसे मिश्र काफी कहा जाता है। वैसे ही इसमें कोमल धैवत का प्रयोग होने पर इसे सिन्ध काफी कहते हैं। सा रे ग१ म प ग१ रे - यह स्वर समूह राग वाचक है इस राग का विस्तार मध्य तथा तार सप्तक में सहजता से किया जाता है।
राग के अन्य नाम
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गुणकली
करुणा और भक्ति रस से परिपूर्ण यह प्रातः कालीन राग श्रोताओं की भावनाओं को आध्यात्मिक दिशा की और ले जाने में समर्थ है। राग दुर्गा में रिषभ और धैवत कोमल करने से राग गुणकली का प्रादुर्भाव हुआ है। धैवत कोमल इसका प्राण स्वर है जिसके बार बार प्रयोग से राग गुणकली का प्रभाव स्पष्ट हो जाता है।
यह राग, भैरव थाट के अंतर्गत आता है। गुणकली एक मींड प्रधान राग है। यह एक सीधा राग है और इसका विस्तार तीनों सप्तकों में किया जा सकता है। यह स्वर संगतियाँ राग गुणकली का रूप दर्शाती हैं -
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राग परिचय
हिंदुस्तानी एवं कर्नाटक संगीत
हिन्दुस्तानी संगीत में इस्तेमाल किए गए उपकरणों में सितार, सरोद, सुरबहार, ईसराज, वीणा, तनपुरा, बन्सुरी, शहनाई, सारंगी, वायलिन, संतूर, पखवज और तबला शामिल हैं। आमतौर पर कर्नाटिक संगीत में इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों में वीना, वीनू, गोत्वादम, हार्मोनियम, मृदंगम, कंजिर, घमत, नादाश्वरम और वायलिन शामिल हैं।