काफी
राग काफी रात्रि के समय की भैरवी है। इस राग में पंचम बहुत खुला हुआ लगता है। राग को सजाने में कभी कभी आरोह में गंधार को वर्ज्य करते हैं जैसे - रे म प ध नि१ ध प म प ग१ रे। इस राग कि सुंदरता को बढाने के लिये कभी कभी गायक इसके आरोह में शुद्ध गंधार व निषाद का प्रयोग करते हैं, तब इसे मिश्र काफी कहा जाता है। वैसे ही इसमें कोमल धैवत का प्रयोग होने पर इसे सिन्ध काफी कहते हैं। सा रे ग१ म प ग१ रे - यह स्वर समूह राग वाचक है इस राग का विस्तार मध्य तथा तार सप्तक में सहजता से किया जाता है।
इस राग का वातावरण उत्तान और विप्रलंभ श्रंगार से ओतप्रोत है और प्रक्रुति चंचल होने के कारण भावना प्रधान व रसयुक्त ठुमरी और होली इस राग में गाई जाती है। यह स्वर संगतियाँ राग काफी का रूप दर्शाती हैं -
धप मप मप ग१ रे ; रेग१ मप रेग१ रे ; नि१ ध प म ग१ रे ; म प ध नि१ प ध सा' ; सा' नि१ ध प म प ध प ग१ रे ; प म ग१ रे म ग१ रे सा;
थाट
राग जाति
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राग
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Raag Kafi -I
This Lecture talks about Raag Kafi -I
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Raag Kafi -II
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कुमाऊं होली रचनाओं में राग "काफी" सर्वाधिक लोकप्रिय, ठुमरी की भा
कुमाऊं में प्रचलित बैठकी होली में सर्वाधिक रचनाएं राग काफी में गाई जाती हैं। इनमें भक्तिभाव से लेकर श्रृंगार तक की रचनाएं हैं। किन मारी पिचकारी मैं तो भीज गई सारी। जाने भिगोई मोरे सन्मुख लाओ नाहीं मैं दूंगी गारी.. होली में इसका बखूबी दर्शन होता है।
गणेश पांडे, हल्द्वानी : कुमाऊं में प्रचलित बैठकी होली में सर्वाधिक रचनाएं राग काफी में गाई जाती हैं। इनमें भक्तिभाव से लेकर श्रृंगार तक की रचनाएं हैं। किन मारी पिचकारी, मैं तो भीज गई सारी। जाने भिगोई मोरे सन्मुख लाओ, नाहीं मैं दूंगी गारी.. होली में इसका बखूबी दर्शन होता है। बैठकी होली में विविध रागों के नाम पर होली गीत गाए जाते हैं लेकिन व्यवहार में ठुमरी की भांति इनमें भी राग की शुद्धता का बंधन नहीं है। इन गीतों की जो चाल-ढाल इतने वर्षों में बन चुके हैं उसे उसी प्रकार से गाया जाता है। हालांकि काफी, खमाज, देश, भैरवी के स्वरों में स्पष्ट पता चल जाता है कि अमुक-अमुक राग पर आधारित होली गीत गाए जा रहे हैं।
कुमाऊं में प्रचलित कुछ होली गीत
- -मद की भरी चली जात गुजरिया। सौदा करना है कर ले मुसाफिर, चार दिनों की लारी बजरिया.. (राग पीलू)
- -आज राधे रानी चली, चली ब्रज नगरी, ब्रज मंडल में धूम मची है। वषन आभूषण सजे सब अंग-अंग पर, मानो शरद ऋतु चन्द्र चली.. ( राग खमाज)
- -अब कैसे जोवना बचाओगी गोरी, फागुन मस्त महीने की होरी। बरज रही बर जो नहीं माने, संय्या मांगे जोबना उमरिया की थोरी.. (राग बहार)
- -राधा नंद कुंवर समझाय रही, होरी खेलो फागुन ऋतु आई रही। अब की होरिन में घर से न निकसूं, चरनन सीस नवाय रही.. (राग जंगलाकाफी)
- -चलो री चलो सखी नीर भरन को, तट जमुना की ओर अगर-चंदन को झुलना पड़ो है, रेशम लागी डोर.. (राग देश)
- -बिहाग बलम तोरे झगड़े में रैन गई कहां गया चंदा कहां गए तारे, कहां तोरी प्रीत की रीत.. (राग देश)
- -अब तो रहूंगी अनबोली, कैसी खेलाई होरी। रंग की गगर मोपे सारी ही डारी, भीज गई तन चोली। सगरो जोवन मोरा झलकन लागो, लाज गई अनमोली.. (राग भैरवी)
- -तोरी वंसुरिया श्याम, करेजवा चीर गई, सुध बुध खोई चैन गवायो, जग में हुई बदनाम, तोरे रंग में रंग दी उमरिया, तोरी हुई घनश्याम.. (राग परज)
- -अचरा पकड़ रस लीनो, होरी के दिनन में रंग को छयल मोरा। अबीर गुलाल मलुंगी वदन में, केशर रंग बरसा.. (राग बागेश्वरी)
- -सहाना कहत निषाद सुनो रघुनन्दन, नाथ न लूं तुमसे उतराई। नदी और नाव के हम हैं खिवैय्या, भव सागर के तुम हो तरैय्या.. (राग बागेश्वरी)
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इसी प्रकार झिंझोटी, जोगिया सहित अन्य रागों में भी कई होली रचनाएं बैठकों में गाई जाती हैं। इनके गायन का शास्त्रीय अंदाज होते हुए भी लोक का ढब होता है जो इसे पृथक शैली का दर्जा देता है। पहाड़ों में शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार में इस होली परंपरा का बहुत बड़ा योगदान है। निर्जन और अति दुर्गम क्षेत्रों तक में रागों के नाम लेकर उसके गायन समय पर आम जन का सजग होना इस बात को सिद्ध करता है।
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आजादी की पहली सुबह में राग काफी की धुन
सात दशक पहले जिस स्वतंत्र भारत की आधारशिला 15 अगस्त, 1947 की आधी रात में रखी गई, लाल किले पर पंडित जवाहरलाल नेहरू के झंडा फहराने के साथ वह दिन बनारस के उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई से भी समृद्ध हुआ था। उसके ठीक एक दिन पहले जब आगामी दिन की तैयारियों में यह देश स्वतंत्रता का अपना बहुप्रतीक्षित इतिहास रचने की तैयारी कर रहा था, उस समय उस्ताद बिस्मिल्ला खां ट्रेन पकड़कर दिल्ली पहुंचे थे। खुशी और आंसू, पीड़ा और आनंद के सम्मिलित प्रभाव में नम होती वह रात इस देश के नए जीवन का मंगल-प्रभात रच रही थी। उस्ताद को बाकायदा गुजारिश करके नेहरू जी ने बुलवाया था कि वे यहां आएं और आजाद भारत के पहले दिन का आगाज अपनी शहनाई से करें। उस्ताद अपनी परफॉर्मेंस को अकीदत के साथ ‘आंसुओं का नजराना’ कहते थे, उन्होंने आजाद होती हुई सुबह को जो नजराना दिया, उसकी अदायगी में राग काफी मौजूद थी। एक तरह से उस्ताद उस अद्भुत ऐतिहासिक पल में राग काफी को इस देश का पहला स्वतंत्र राग बनाकर सार्वजनिक कर रहे थे। बिस्मिल्ला खां रोए जा रहे थे, काफी में सरगम भरी जा रही थी और शहनाई एक साज की तरह नहीं, बल्कि एक हिन्दुस्तानी की तरह अपना परवाज टटोल रही थी।
यह बताता है कि देश की आजादी में भारत का सांस्कृतिक स्वरूप स्वत: समाहित था, जो यह इशारा करता है कि हम भले ही लंबी दासता के बाद स्वतंत्र हुए हैं, मगर हमारी सांस्कृतिक थाती हमेशा से आजाद रही है। देश को रचने वाले विचारकों के मन में यह आश्वस्ति थी कि कला-संपदा की इस समृद्ध विरासत पर भारत जल्द ही अपनी ऐसी स्वतंत्र परिभाषा गढ़ लेगा, जिसमें विविधता में एकता के समावेशी सूत्र छिपे हुए थे। जिस समय देश आजाद हुआ, उसके साथ ही, कला-वैचारिकी के तमाम मूर्धन्य अपने-अपने ढंग से भारतीय नवजागरण का हिस्सा बन चुके थे। इसमें उस्ताद फैय्याज खां को याद किया जा सकता है, जो अपनी सभाओं में गांधी जी का प्रिय भजन रघुपति राघव राजा राम जरूर गाते थे। बनारस की हुस्नाबाई ने तो आजादी की लड़ाई में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार ही नहीं किया, गांधी जी के आह्वान पर स्वदेशी जागरण में शामिल होकर स्त्रियों को अंग्रेजी सरकार के खिलाफ लोकगीतों से जागरूक करती रहीं।
72 साल पहले हमें जो आजादी मिली, उसमें उस्ताद बिस्मिल्ला खां की राग काफी की धुन, हुस्नाबाई और विद्याधरी के अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ गाए जाने वाले असंख्य लोक-संस्कार के गीत, एम एस सुब्बुलक्ष्मी द्वारा जन-जागरण अभियानों व प्रार्थना-सभाओं में गाए जाने वाले भजनों और पंडित प्रदीप व सुधीर फड़के के देशभक्ति-परक गीतों का योगदान शामिल रहा है। किसी ने गीत-संगीत, तो किसी ने कविता और भाव-गीतों के जरिए स्वतंत्रता की अवधारणा में अपनी कला का योगदान रचा था। वी शांताराम की मराठी फिल्म ‘अमर भूपाली’ के लिए वसंत देसाई ने जो भोर का प्रार्थना गीत घनश्याम सुंदरा श्रीधरा अरुणोदय झाला बनाया, उसमें भारतीयता का आदर्श ढंग से फिल्मांकन किया गया है। इसमें ब्रिटिश सरकार की रुखसती का बिंब भी सांगीतिक रूप से मन के भीतर कहीं ओज पैदा करता है। ऐसे ढेरों उदाहरण साहित्य से लेकर शास्त्रीय संगीत, रंगमंच, सिनेमा और कलाओं की दुनिया में बिखरे पड़े हैं, जिनसे 15 अगस्त, 1947 की सुबह ठंडी हवा के बयार जैसी मानवीय अर्थों में स्वागत करती नजर आती है।
किस्मत फिल्म का वह गीत, जिसे पंडित प्रदीप ने कलमबद्ध करने के साथ, स्वर भी दिया था, आजादी के स्वर्णिम इतिहास की याद दिलाते हुए रोमांच से भरता है, जब हम इसे आज भी यू-ट्यूब पर सुनते हैं- आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है/ दूर हटो ऐ दुनियावालो हिन्दुस्तान हमारा है। बड़े कलाकारों द्वारा किए गए भारतीय नव-जागरण के अनेकों अभियानों को आज की तारीख में याद करते हुए आजादी की वर्षगांठ पर बिस्मिल्ला खां की राग काफी को सुनना, या पंडित ओंकारनाथ ठाकुर का वंदे मातरम् को आत्मसात करना, कहीं-न-कहीं अपनी उसी स्वतंत्रता प्राप्ति के मांगलिक उपक्रमों का वर्तमान में थोड़ी देर के लिए हिस्सा भर बनने जैसा है। इसे उसी सामाजिक समरसता के उत्सव की तरह याद करना आज ज्यादा प्रासंगिक है।
यतीन्द्र मिश्र, साहित्यकार
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राग काफी का परिचय
राग काफी का परिचय
वादी: प
संवादी: सा
थाट: KAFI
आरोह: सारेग॒मपधनि॒सां
अवरोह: सांनि॒धपमग॒रेसा
पकड़: नि॒पग॒रे
रागांग: पूर्वांग
जाति: SAMPURN-SAMPURN
गाने-बजाने का समय - मध्य रात्री