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वाद्ययन्त्रों के प्रकार

भारतीय संगीत में प्रयुक्त होने वाले वाद्ययन्त्रों (साजों) में अष्टांगों में से सात अंगों को व्यक्त करने की क्षमता होनी चाहिये। सुरीले साजों में गमक, मींड, तान के खटके, यथास्थान स्वर, आलाप आदि अंग पूर्ण रूप में अभिव्यक्त होना चाहिये। भारतीय संगीत में 5 प्रकार के वाद्य प्रचलित हैं - तत् वाद्य, तंतु वाद्य, सुषिर वाद्य, अवनद्घ वाद्य, घन वाद्य।

तत् वाद्य - तत् वाद्य वे हैं जो कि नखी, मिजराब या अन्य किसी अंगूठी द्वारा अथवा अंगुली के आघात प्रत्याघातों द्वारा बजाये जाते हैं। जिसमें तानपूरा, विचित्र वीणा, वीणा, सरोद, गिटार, सितार, सुरबहार, रबाब आदि वाद्य आते हैं। इन साजों में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आघात होने पर स्वर अत्यन्त अल्पकालिक रहता है। और बजाने वाले कलाकारों का रियाज और तालीम ही उसमें सौंदर्य वर्धन करती है। साथ ही इनका स्वर अत्यन्त कर्णप्रिय व हृदयग्राही होता है।

तंतु वाद्य - तंतु वाद्य अर्थात तांत, गट लगे हुए वाद्य जो कि गज् (bow) की सहायता से बजाये जाते हैं। इनका नाद, गज की लम्बाई के हिसाब से दीर्घकाल तक कायम रहता है। जैसे सारंगी, दिलरुबा, बेला (violin), तार शहनाई आदि साज़ों पर गायन के आधार की बन्दिशें बजाई जाती हैं। इन वाद्यों की संगत से, गायन की सरसता, चरमकोटि की सुन्दर बन जाती है।

सुषिर वाद्य - तीसरे प्रकार के वाद्य हैं सुषिर वाद्य जो कि हवा के दबाव के कारण बजते हैं। जैसे बांसुरी, अलगोजा, शहनाई, क्लेरियोनेट, पिकलो, हार्मोनियम आदि।

अवनद्घ वाद्य - चौथे प्रकार के वाद्य हैं अवनद्घ वाद्य जो कि चमड़े से मढ़े रहते हैं और विशेषत: यह ताल के वाद्य होते हैं। संगत के वाद्यों में पखावज, तबला, ढोलक आदि वाद्य, ताल की आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।

घन वाद्य - पाँचवें प्रकार के वाद्य हैं घन वाद्य जो कि धातुओं द्वारा बने रहते हैं। जिन्हें हम जलतरंग, झांझ, तासा, मंजीरा, घुंघरू, घंटा आदि के नाम से भलि-भांति पहिचानते हैं।