टप्पा
टप्पा का अर्थ है निश्चित स्थान पर पहुंचना या ठहरी हुई मंजिल तय करना। गुजरात, काठियावाड से पंजाब, काबुल, बलोचिस्तान के व्यापारी जब पूर्व परम्परा के अनुसार ऊंटों के काफिलों पर से राजपुताना की मरुभूमि में से यात्रा करते हुए ठहरी हुई मंजिलों तक पहुंचकर पड़ाव डाला करते थे, उस समय पंजाब की प्रेमगाथाओं के लोकगीत, हीर-राँझा, सोहिनी-महिवाल आदि से भरी हुई भावना से गाये जाते थे। उनका संकलन हुसैन शर्की के द्वारा हुआ। शोरी मियां ने इन्हें विशेष रागों में रचा। यही पंजाबी भाषा की रचनाएँ टप्पा कहलाती हैं। टप्पा, भारतीय संगीत के मुरकी, तान, आलाप, मीड के अंगों कि सहायता से गाया जाता है। पंजाबी ताल इसमें प्रयुक्त होता है। टप्पा गायन के लिये विशेष प्रकार का तरल, मधुर, खुला हुआ कन्ठ आवश्यक है, जिसमें गले की तैयारी विशेषता रखती है।
टप्पा शैली
- इस शैली में लय बहुत महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि रचना तीव्र, सूक्ष्म और जटिल होती हैं। इसका उद्भव उत्तर-पश्चिम भारत के ऊट सवारों के लोक गीतों से हुआ था लेकिन सम्राट मुहम्मद शाह के मुगल दरबार में प्रवेश करने पर इसे अर्द्ध-शास्त्रीय स्वरीय विशेषता के रूप में मान्यता प्रदान इ गई। इसमें मुहावरों का बहुत तीव्र और बड़ा ही घुमावदार उपयोग किया जाता है।
- टप्पा ना केवल अभिजात वर्ग बल्कि विनम्र वाद्य यंत्र वाले वर्गों की भी पसंदीदा शैली है। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा 20वीं सदी के प्रारम्भ में बैठकी शैली का विकास हुआ।
- वर्तमान समय में यह शैली प्राय: विलुप्त होती जा रही है तथा इसका अनुसरण करने वाले बेहद कम लोग बचे हैं। इस शैली के कुछ प्रसिद्ध गायक हैं- मियां सोदी, ग्वालियर के पंडित लक्ष्मण राव और शन्नो खुराना।
टप्पा शब्द हिंदी भाषा का शब्द है यह भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक गायन शैली है यह गायन शैली अत्यंत चंचल प्रकार की है इसमें केवल स्थाई और अंतरा दो ही भाग होते हैं जो द्रुपद और खयाल की अपेक्षा अधिक संक्षिप्त होते हैं । इस शैली में करुण रस श्रृंगार रस की प्रधानता रहती है। परंतु रविंद्र संगीत में टप्पा गीत अधिकतर पूजा से संबंधित होते हैं। इसमें श्रंगार एक और प्रेम रस का अभाव रहता है ऐसा माना जाता है मियां छोरी ने बेसरा गीती के आधार पर इस का विकास किया था इस शैली का विकास अवध के दरबार में हुआ परंतु इसका उद्गम पंजाब के पहाड़ी क्षेत्र में हुआ ऐसा हम इसलिए भी कह सकते हैं क्योंकि अधिकतर शब्द इसमें पंजाबी भाषा के ही पाए जाते हैं इस गायकी के साथ टप्पा ताल बजती है जो 16 मात्रा कि होती है इसमें ताल को विश्राम नहीं दिया जाता केवल तान और बोल तान का ही प्रयोग किया जाता है इसमें आलाप नहीं किया जाता इसमें खटका मुरकी कण आदि का काफी मात्रा में प्रयोग किया जाता है यह अधिकतर काफी , भैरवी , झिंझोटी, बरवा,माझ में पाए जाते हैं।
टप्पों को एकाएक प्रस्तुत करने हेतु नियमानुसार पहले आलाप को ठुमरी अंग में गाया जाता है तथा उसके पश्चात तेज़ी से असमान लयबद्ध लहज़े में बुने शब्दों के उपयोग से तानायत की ओर बढ़ा जाता है|
सुर-संगम के सभी श्रोता-पाठकों को सुमित चक्रवर्ती का स्नेह भरा नमस्कार! तो कहिए कैसे बीते गर्मियों के दिन? जैसे किसी किसी मुसाफ़िर का मंज़िल पाने पर संघर्ष समाप्त हो जाता है, मानो ठीक उसी प्रकार गर्मियों के ये झुलसा देने वाले दिन भी अब बीत चुके हैं| और आ गयी है वर्षा ऋतु सबके जीवन में हर्ष की नई फुहार लिए| तो हम ने भी सोचा की क्यों न इस बार के अंक में कुछ अलग प्रकार का संगीत चर्चा में लाया जाए| आज का सुर-संगम आधारित है पंजाब व सिंध प्रांतों की प्रसिद्ध उप-शास्त्रीय गायन शैली 'टप्पा' पर|
टप्पा भारत की प्रमुख पारंपरिक संगीत शैलियों में से एक है| यह माना जाता है की इस शैली की उत्पत्ति पंजाब व सिंध प्रांतों के ऊँट चलाने वालों द्वारा की गई थी| इन गीतों में मूल रूप से हीर और रांझा के प्रेम व विरह प्रसंगो को दर्शाया जाता है| खमाज, भैरवी, काफ़ी, तिलांग, झिन्झोटि, सिंधुरा और देश जैसे रागों तथा पंजाबी, पश्तो जैसे तालों द्वारा प्रेम-प्रसंग अथवा करुणा भाव व्यक्त किए जाते हैं| टप्पा की विशेषता हैं इसमें लिए जाने वाले ऊर्जावान तान और असमान लयबद्ध लहज़े| टप्पा गायन को एक लोक-शैली से ऊपर उठाकर एक शास्त्रीय शैली का रूप दिया था मियाँ ग़ुलाम नबी शोरी नें जो अवध के नवाब असफ़-उद्-दौलह के दरबारी गायक थे| इस शैली के बारे में और जानने से पहले क्यों न एक अल्प-विराम ले कर प्रसिद्ध टप्पा गायिका विदुषी मालिनी राजुर्कर द्वारा राग भैरवी में प्रस्तुत इस टप्पे का आनंद लें!
टप्पा गायन शैली में ठेठ 'टप्पे के तान' प्रयोग में लाए जाते हैं| पंजाबी ताल, जिसे 'टप्पे का ठेका' भी कहा जाता है, में ताल के प्रत्येक चक्र में तान के खिंचाव और रिहाई का प्रयोग आवश्यक होता है| टप्पों को एकाएक प्रस्तुत करने हेतु नियमानुसार पहले आलाप को ठुमरी अंग में गाया जाता है तथा उसके पश्चात तेज़ी से असमान लयबद्ध लहज़े में बुने शब्दों के उपयोग से तानायत की ओर बढ़ा जाता है| टप्पा गायकी में जमजमा, गीतकारी, खटका, मुड़की व हरकत जैसे कई अलंकार प्रयोग में लाए जाते हैं| यह शैली मूलतः ग्वालियर घराने तथा बनारस घराने की विशेषता है| दोनो घरानों के टपपों में ताल और आशुरचना की शैली का उपयोग जैसे कुछ संरचनात्मक मतभेद हैं, लेकिन मौलिक सिद्धांत एक जैसे ही हैं| आइए सुनते हैं ग्वालियर घराने की प्रसिद्ध गायिका श्रीमती शाश्वती मंडल पाल द्वारा राग खमाज में गाए इस टप्पे को |
आज के दौर में टप्पा प्रदर्शन के परिदृश्य में जब कलाकारों की बात आती है तो निस्संदेह सबसे शानदार माना जाता है विदुषी मालिनी राजुर्कर को| ७० के दशक से इन्होंने इस शैली को जनप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है| अपने स्पष्ट व उज्ज्वल तानों से न कावेल इन्होंने कई उत्कृष्ट प्रस्तुतियां दी हैं बल्कि टपपों में मूर्छना जैसी तकनीकों का प्रयोग करा इस शैली को एक नया रूप दिया है| इनके अलावा ग्वालियर घराने से आरती अंकालिकर, आशा खादिलकर, शाश्वती मंडल पाल जैसी गायिकाओं नें इस गायन शैली को लोकप्रिय किया| बनारस घराने से बड़े रामदासजी, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, पंडित गणेश प्रसाद मिश्र तथा राजन व साजन मिश्र जैसे दिग्गजों ने भी इस शैली में उल्लेखनीय प्रस्तुतियाँ दी हैं| आइए आज की चर्चा को समाप्त करते हुए सुनें पंडित गणेश प्रसाद मिश्र द्वारा राग काफ़ी में गाए इस टप्पे को|
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पंजाब की धरती पर विकसित संगीत शैली ‘टप्पा’ भी एक श्रृंगाररस प्रधान गायकी है। इस शैली में खयाल और ठुमरी, दोनों की विशेषताएँ उपस्थित रहती है। टप्पा गायन के लिए खयाल और ठुमरी, दोनों शैलियों का प्रशिक्षण और अभ्यास आवश्यक है। इसका विकास चूँकि पंजाब और सिन्ध के पहाड़ी क्षेत्रों में हुआ है, अतः अधिकतर टप्पा पंजाबी भाषा में मिलता है। सिन्ध क्षेत्र में ‘टप्पे’ नामक एक लोकगीत शैली का प्रचलन रहा है। यह लोकगीत आज भी पंजाब में सुनने में आता है। रागदारी संगीत के अन्तर्गत गाया जाने वाला टप्पा, ‘टप्पे’ लोकगीत से काफी भिन्न होता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार पंजाब के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में ऊँटों पर अपना व्यापारिक सामान ढोने वाले सौदागरों द्वारा जो लोकगीत गाया जाता था, उनमें रागों का रंग भर कर टप्पा गायन शैली का विकास हुआ। इसे विकसित करने का श्रेय शोरी मियाँ को दिया जाता है। शोरी मियाँ का वास्तविक नाम गुलाम नबी था और ये सुप्रसिद्ध खयाल गायक गुलाम रसूल के पुत्र थे। शोरी मियाँ अठारहवीं शताब्दी में लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला के समकालीन थे। उनका कण्ठ खयाल गायकी के अनुकूल नहीं थी, इसीलिए उन्होने अपने गले के अनुकूल टप्पा गायकी को विकसित किया। काफी समय तक पंजाब प्रान्त में रहने के कारण पंजाबी भाषा और उस क्षेत्र के लोक संगीत का उन्हें ज्ञान हो गया था। शोरी मियाँ के पंजाबी भाषा में रचे अनेक टप्पा गीत आज भी गाये जाते हैं। शोरी मियाँ के पंजाब से लखनऊ आने के बाद टप्पा गायन का प्रचार-प्रसार लखनऊ संगीत जगत में भी हुआ। आगे चल कर पूरे उत्तर भारत में टप्पा गाया जाने लगा। पंजाब और लखनऊ के अलावा बनारस और ग्वालियर के प्रमुख खयाल गायकों ने टप्पा को अपना लिया।
अब हम प्रस्तुत करते हैं, ग्वालियर परम्परा में टप्पा गायन का एक उदाहरण, देश की जानी-मानी गायिका विदुषी मालिनी राजुरकर के स्वरों में। 1941 में जन्मीं मालिनी जी का बचपन राजस्थान के अजमेर में बीता और वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा भी सम्पन्न हुई। आरम्भ से ही दो विषयों- गणित और संगीत, से उन्हें गहरा लगाव था। उन्होने गणित विषय से स्नातक की पढ़ाई की और अजमेर के सावित्री बालिका विद्यालय में तीन वर्षों तक गणित विषय पढ़ाया भी। इसके साथ ही अजमेर के संगीत महाविद्यालय से गायन में निपुण स्तर तक शिक्षा ग्रहण की। सुप्रसिद्ध गुरु पण्डित गोविन्दराव राजुरकर और उनके भतीजे बसन्तराव राजुरकर से उन्हें गुरु-शिष्य परम्परा में संगीत की शिक्षा प्राप्त हुई। बाद में मालिनी जी ने बसन्तराव जी से विवाह कर लिया। मालिनी जी को देश का सर्वोच्च संगीत-सम्मान, ‘तानसेन सम्मान’ से नवाजा जा चुका है। खयाल के साथ-साथ मालिनी जी टप्पा, सुगम और लोक संगीत के गायन में भी कुशल हैं। लीजिए, उनके मधुर स्वर में सुनिए, राग भैरवी और अद्धा त्रिताल में निबद्ध एक पारम्परिक टप्पा।
शोरी मियाँ के प्रमुख शिष्य मियाँ गम्मू और ताराचन्द्र थे। इन्होने भी टप्पा गायकी का भरपूर प्रचार किया। मियाँ गम्मू के पुत्र शादी खाँ भी टप्पा गायन में दक्ष थे और तत्कालीन काशी नरेश के दरबारी गवैये थे। लखनऊ, बनारस और ग्वालियर के ख्याल गायन पर भी टप्पा का प्रभाव पड़ा। नवाब वाजिद अली खाँ के समय में तो टप्पा अंग से खयाल गाना, गायक की एक विशेष योग्यता मानी जाती थी। टप्पा अंग से खयाल गायकी को लोकप्रियता मिलने के कारण एक नई गायन शैली का चलन हुआ, जिसे ‘ठप्प खयाल’ कहा जाने लगा। टप्पा की प्रकृति चंचल, लच्छेदार ताने, मुर्की, खटका आदि के प्रयोग के कारण खयाल और ठुमरी की गम्भीरता से दूर है। टप्पा गायन में शुरू से ही छोटी-छोटी दानेदार तानों से सजाया जाता है। स्वरों में किसी प्रकार की रुकावट नहीं होती। बोल आलाप का प्रयोग नहीं किया जाता। खयाल की तरह टप्पा गायन के घराने नहीं होते, किन्तु विभिन्न स्थानों पर विकसित टप्पा गायकी की प्रस्तुतियों में थोड़ा अन्तर मिलता है। ग्वालियर में प्रचलित टप्पा गायकी में खयाल का प्रभाव स्पष्ट नज़र आता है। इसी प्रकार बनारस में गेय टप्पा पर ठुमरी का प्रभाव परिलक्षित होता है। टप्पा का साहित्य श्रृंगाररस प्रधान होता है और ठुमरी की तरह अधिकतर खमाज, भैरवी, काफी, झिंझोटी, तिलंग, पीलू, बरवा आदि रागों में गायी जाती है। इसी प्रकार अधिकतर टप्पा पंजाबी, अद्धा त्रिताल, सितारखानी जैसे सोलह मात्रा के तालों में निबद्ध मिलता है। अब हम आपको रामपुर सहसवान घराने के सुविख्यात गायक उस्ताद मुश्ताक हुसेन खाँ का गाया राग काफी का एक टप्पा सुनवाते हैं।
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