काठी नृत्य
काठी देवी के कारण ही इसे 'काठी नृत्य' के नाम से जाना जाता है, जबकि काठियावाड़ को इस नृत्य का जन्म स्थल माना जाता है। माता के आराधक 'भगत' नाम से पुकारे जाते हैं।
प्रदेश
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निमाड़ी उपबोली
देवउठनी ग्यारस से महाशिवरात्रि तक चलने वाला निमाड़ का वृहत आयोजन।वैसे काठी नृत्य अब साल भर होता है।इन नर्तकों के पिताजी,चाचाजी आदि जर्मनी सहित कई देशों में परफॉर्म कर चुके हैं।दक्षिण महाकौशल और मालवा के बीच का क्षेत्र निमाड़ है।और निमाड़ी उपबोली अभी भी बोली जाती है।
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काठी नृत्य से कर रहे माँ गौरी की आराधना
खरगोन। अद्भुत निमाड़ निमाड़ में काठी नृत्य का अपना इतिहास है। मां गौरी व भगवान शिव की आराधना के लिए यह नृत्य किया जाता है। आकर्षक चटक लाल रंग की वेशभूषा पहनकर पारम्परिक छोटी डुगडुगी और थाली की थाप पर लोकगीत गाकर नृत्य करते है। महिलाएं मां गौरी की प्रतीक स्वरूप सजाई आकृति की पूजा करती है। यह नृत्य दल देव प्रबोधनी एकादशी से महाशिवरात्रि तक अलग-अलग क्षेत्रों में घूमते है। महाशिवरात्रि पर भगवान शिव-पार्वती के पूजन के साथ ही नृत्य दल वापस अपने गांव लौट जाते है।
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काठी नृत्य
मध्य प्रदेश के निमाड़ अंचल का लोक-नाट्य है - काठी नृत्य. नृत्य के पहले नर्तक लकड़ी से बनी वस्त्रों से सुसज्जित अपनी इष्ट देवी 'काठी' माता को पवित्र कर संस्कार के मुताबिक पूजा करते हैं. काठी देवी के नाते ही इसे 'काठी नृत्य' कहा जाता है. माता के आराधक 'भगत' कहे जाते हैं. इस नृत्य के प्रमुख पात्र 'राजुल्या' काठी माता को हाथ में लिए रहते हैं तथा 'खोरदार' थाली बजाकर इस नृत्य के संगीत को लय देते हैं. नर्तकों की कमर में बंधे डमरू और पांव में बंधे घुंघरू नृत्य की लय और संगीत को प्रवाह देते हैं. रायसेन के भोजपुर मंदिर पर शिवरात्रि के दिन जुटे मेले में काठी नर्तकों की यह टोली भी पहुंची. शंकर थाली बजाते, मोहन और रामकृष्ण डमरू बजाते हुए नृत्य करते और शंकर-पार्वती की शान में गाते