मांदर
अवनध्द वाद्य मुख्यत: चमड़े के वाद्य हैं। झारखण्ड में चमड़ा निर्मित वाद्यों की संख्या सबसे अधिक है। उनको ताल वाद्य भी कहा जाता है। उनमें मांदल या मांदर, ढोल, ढाक, धमसा, नगाड़ा, कारहा, तासा, जुड़ी-नागरा, ढप, चांगु, खंजरी, डमरू, विषम ढाकी आदि आते हैं। उनमें मांदर, ढोल, ढाक, डमरू, विषम ढकी आदि मुख्य ताल वाद्य हैं। धमसा, कारहा, तासा, जुड़ी नागरा आदि गौण ताल वाद्य हैं। वे सभी वाद्य नृत्य के साथ बजाये जाते हैं।
झारखण्ड का प्राचीन वाद्य है मांदर
मांदर झारखंड का प्राचीन और अत्यंत लोकप्रिय वाद्य है। इसे यहां लगभग सभी समुदाय के लोग बजाते हैं। यह पार्श्वमुखी वाद्य है। लाल मिट्टी के बने मांदर का गोलाकार ढांचा अंदर से खोखला होता है। इसके दोनों तरफ के खुले मुंह बकरे की खाल से ढंके रहते हैं। ढांचा के उपर गोलाकार बध्दी (चमड़े की रस्सी½ कसी रहती है। मुंह की खालों को कसने के लिए चमड़े की वेणी का इस्तेमाल किया जाता है। मांदर का दाहिना मुंह छोटा और बायां मुंह चौड़ा होता है। छोटे मुंह वाली खाल पर खास तरह का लेप लगाया जाता है। उसे 'किरण' कहते हैं। उसकी वजह से मांदर की आवाज गूंजदार होती है। नाच के वक्त उसे बजाने वाला भी घूमता-थिरकता है। इसके लिए वह रस्सी के सहारे मांदर को कंधे से लटका लेता है।
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