ठुमरी
राधाकृष्ण के या प्रेम की भावना से परिपूर्ण श्रंगारिक गीत जिसका अर्थ मिलन अथवा विरह की भावना में लिपटा रहता है, खटकेदार स्वरसंगतियों और भावानुकूल बोल आलापों एवं बोलॅतानों से सजाते हुए अर्थ सुस्पष्ट करके गाया जाता है उसे ठुमरी कहते हैं। लखनऊ, बनारस तथा पंजाब शैली की ठुमरियां अपनी अपनी विशेषता से परिपूर्ण होती हैं। इसमे प्रयक्त होने वाले ताल हैं पंजाबी, चांचर, दीपचंदी, कहरवा और दादरा आदि।
ठुमरी शैली
- यह मिश्रित रागों पर आधारित है और इसे सामान्यतः अर्द्ध-शास्त्रीय भारतीय संगीत माना जाता है। इसकी रचनाएँ भक्ति आंदोलन से अधिक प्रेरित है कि इसके पाठों में सामान्यतः कृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम को दर्शाया जाता है। इसकी रचनाओं की भाषा सामान्य तौर पर हिंदी या अवधी या ब्रज भाषा होती है।
- इन्हें प्राय: महिला गायक द्वारा गाया जाता है। यह अन्य रूपों की तुलना में अलग है क्योंकि ठुमरी में निहित कामुकता विद्यमान होती है। दादरा, होरी, कजरी, सावन, झूला और चौती जैसे हल्के-फुल्के रूपों के लिये भी ठुमरी नाम का प्रयोग किया जाता है। मुख्य रूप से ठुमरी दो प्रकार की होती हैं:
- पूर्वी ठुमरी: इसे धीमी गति से गाया जाता है।
- पंजाबी ठुमरी: इसे तेज़ गति एवं जीवंत तरीके से गाया जाता है।
- ठुमरी के मुख्य घराने बनारस और लखनऊ में स्थित हैं और ठुमरी गायन में सबसे प्रसिद्ध स्वर बेगम अख्तर का है जो गायन में अपनी कर्कश आवाज़ और असीम तान के लिये प्रसिद्ध हैं।
ठुमरी : इसमें रस, रंग और भाव की प्रधानता होती है
ठुमरी भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक गायन शैली है। इसमें रस, रंग और भाव की प्रधानता होती है। अर्थात जिसमें राग की शुद्धता की तुलना में भाव सौंदर्य को ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है।[1] यह विविध भावों को प्रकट करने वाली शैली है जिसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है साथ ही यह रागों के मिश्रण की शैली भी है जिसमें एक राग से दूसरे राग में गमन की भी छूट होती है और रंजकता तथा भावाभिव्यक्ति इसका मूल मंतव्य होता है। इसी वज़ह से इसे अर्ध-शास्त्रीय गायन के अंतर्गत रखा जाता है।
भारत का संगीत ...
उत्पत्ति
ठुमरी की उत्पत्ति लखनऊ के नवाब वाज़िद अली शाह के दरबार से मानी जाती है।[1] जबकि कुछ लोगों का मानना है कि उन्होंने इसे मात्र प्रश्रय दिया और उनके दरबार में ठुमरी गायन नई ऊँचाइयों तक पहुँचा क्योंकि वे खुद 'अख्तर पिया' के नाम से ठुमरियों की रचना करते और गाते थे।[2] हालाँकि इसे मूलतः ब्रज शैली की रचना माना जाता है और इसकी अदाकारी के आधार पर पुनः पूरबी अंग की ठुमरी और पंजाबी अंग की ठुमरी में बाँटा जाता है[3] पूरबी अंग की ठुमरी के भी दो रूप लखनऊ और बनारस की ठुमरी के रूप में प्रचलित हैं।
प्रारूप
ठुमरी की बंदिश छोटी होती है और श्रृंगार रस प्रधान होती है। भक्ति भाव से अनुस्यूत ठुमरियों में भी बहुधा राधा-कृष्ण के प्रेमाख्यान से विषय उठाये जाते हैं। ठुमरी में प्रयुक्त होने वाले राग भी चपल प्रवृत्ति के होते हैं जैसे: खमाज, भैरवी, तिलक कामोद, तिलंग, पीलू, काफी, झिंझोटी, जोगिया इत्यादि।[1] ठुमरी सामान्यतः छोटी लम्बाई (कम मात्रा) वाले तालों में गाई जाती हैं जिनमें कहरवा, दादरा, और झपताल प्रमुख हैं। इसके आलावा दीपचंदी और जतताल का ठुमरी में काफ़ी प्रचलन है।[1] राग की तरह ही इस विधा में एक ताल से दूसरे ताल में जाने की छूट भी होती है।
वर्तमान स्थिति
वर्तमान समय में इस विधा की ओर रूचि के कम होने का कारण शास्त्रीय गायन ही में रूचि का ह्रास है। बनारस के जाने-माने ठुमरी गायक पं॰ छन्नूलाल मिश्र की मानें तो अब ठुमरी गाने वाले कम हो गए हैं और बनारस घराने की गायकी की इस विधा को सीखने-सिखाने का दौर मंद पड़ गया है।[4] वहीं दूसरी ओर प्रयोग के तौर कुछ लोगों द्वारा वर्तमान समय में ठुमरी को पश्चिमी संगीत के साथ जोड़ कर ठुमरी के पारंपरिक वाद्यों, तबला, हारमोनियम, सारंगी और ढोलक के अलावा इसमें ड्रम्स, वॉयलिन, की-बोर्ड और गिटार के साथ अफ्रीकी ड्रम जेम्बे, चीनी बांसुरी और ऑर्गेनिक की-बोर्ड पियानिका का इस्तेमाल भी इस्तेमाल किया जा रहा है।
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