अवनद्व वाद्य और चमड़े के वाद्य ( ताल वाद्य ; झिल्ली के कम्पन वाले वाद्ययंत्र )
खंजरी
यह ढप का ही एक लघु रूप है। ढप की तरह इस पर भी चमड़ा मढ़ा होता है। यह मढी खाल गोह या बकरी की होती है। इसे कामड़, भील, कालबेलिया आदि बजाते हैं। इसे बजाने में केवल अंगुलियों और हथेली का भाग काम में लिया जाता है।
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नगाड़ा
यह दो प्रकार का होता है- छोटा व बड़ा। छोटे नगाड़े के साथ एक नगाड़ी भी होती है। बड़ा नगाड़ा नौबत की तरह ही होता है। यह बड़े व भारी डंडों से बजाया जाने वाला कढाई के आकार का लोहे का एक बडा नगाडा होता है। इसे 'बम, दमाम या टापक' भी कहते हैं। इसे बजाने के लिए वादक लकड़ी के दो डंडे का प्रयोग करते हैं। नगाड़े को लोकनाट्यों व विवाह व मांगलिक उत्सव में शहनाई के साथ बजाया जाता है। इसे युद्ध के समय भी बजाया जाता था।
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तबला
तबला को भी शास्त्रीय के साथ हर तरह के संगीत के साथ प्रयोग किया जा सकता है। इसका प्रयोग भारतीय संगीत में मुख्य रूप से मुख्य संगीत वाद्य यंत्रों का साथ देनेवाले वाद्ययंत्र के रूप में किया जाता है। इसके दो हिस्से होते हैं, जो लकड़ी के खाले डिब्बे की तरह होते हैं और बजाते समय दोनों के लिए अलग-अलग हाथ प्रयोग किए जाते हैं। दाएं हाथ से बजाए जानेवाले यंत्र को, जो आकार में बड़ा होता है, तबला, दायाँ या दाहिना कहा जाता है। जबकि छोटे यंत्र को जो आकार में छोटा होता है और बाएं हाथ से बजाया जाता है उसे सिद्दा, या बायाँ कहा जाता है। सिद्दा को बजाते समय बाएं हाथ की उँगलियों, हथेली और कलाई का प्रयोग किया जात
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रमझोल
रमझोल वाद्य यंत्र चमडे की एक पट्टी पर छोटे-छोटे घुंघरूओं को लगाकर बनाया जाने वाला एक वाद्य है।
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ढोलक
यह एक साधारण लेकिन प्रमुख ताल वाद्य है। यह ढोल की तरह का वाद्य है लेकिन इसका आकार छोटा होता है। इसे लकड़ी के घेरे के दोनों तरफ चमड़ा मढ़ कर बनाया जाता है। इसके चमड़े को इस पर लगी डोरियों से कसा जाता है। इसे दोनों हाथों से बजाया जाता है। ढोलक, ढोल या ढोलकी भारतीय वाद्य यंत्र है। ढोल भारत के बहुत पुराने ताल वाद्य यंत्रों में से है। उत्तर भारत में इसका अधिकतर प्रयोग किया जाता है।
ये हाथ या छडी से बजाए जाने वाले छोटे नगाड़े हैं जो मुख्य रूप से लोक संगीत या भक्ति संगीत को ताल देने के काम आते हैं।
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कुंडी
यह आदिवासी जनजातियों का प्रिय वाद्ययंत्र है, जो पाली, सिरोही एवं मेवाड़ के आदिवासी क्षेत्रों में बजाया जाता है। मिट्टी के छोटे पात्र के उपरी भाग पर बकरे की खाल मढ़ी रहती है। इसका ऊपरी भाग चार-छः इंच तक होता है। कुंडी के ऊपरी भाग पर एक रस्सी या चमड़े की पट्टी लगी रहती है, जिसे वादक गले में डालकर खड़ा होकर बजाता है। वादन के लिए लकड़ी के दो छोटे गुटकों का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी नृत्यों के साथ इसका वादन होता है।
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बम
बम, कमट, टामक यह एक प्रकार का विशाल नगाड़ा है। इसका आकार लोहे की बड़ी कड़ाही जैसा होता है, जो लोहे की पटियों को जोड़कर बनाया जाता है। इसका ऊपरी भाग भैंस के चमड़े से मढ़ा जाता है। खाल को चमड़े की तांतों से खींचकर पेंदे में लगी गोल गिड़गिड़ी (लोहे का गोल घेरा) से कसा जाता है। अवनद्ध वाद्यों में यह सबसे बड़ा व भारी होता है। प्राचीन काल में यह रणक्षेत्र एवं दुर्ग की प्राचीर पर बजाया जाता था। इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले लिए लकड़ी के छोटी गाड़ी (गाडूलिए) का उपयोग किया जाता है। इसे बजाने के लिए वादक लकड़ी के दो डंडो का प्रयोग करते हैं।
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डैरूं
यह डमरू का बड़ा रूप है। यह आम की लकड़ी के दोनों तरफ बारीक खाल मढ़ कर बनाया जाता है तथा रस्सियों से कसा होता है। एक हाथ से पकड़ कर डोरियों पर दबाव डाल कर कसा व ढीला छोड़ा जाता है तथा दूसरे हाथ से लकड़ी की पतली डंडी के आघात से इसे बजाया जाता है। यह जाहरपीर गोगा के भक्तों का प्रमुख वाद्य है।
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ढप
चंग या ढप- इसे होली के अवसर पर बजाया जाता है। यह 'ताल वाद्य' लकड़ी की गोल रिंग के एक ओर बकरे की खाल मढ़ कर बनाया जाता है। इसे दोनों हाथों से बजाया जाता है।
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धौंसा
यह भी नगाडे की तरह का वाद्य है। यह आम या फरास की लकड़ी के घेरे पर भैंस का चमड़ा मढ़ कर बनाया जाता है। इसे गणगौर या अन्य मेलों की सवारी के समय घोड़े पर दोनों तरफ रख कर लकड़ी के डंडों से बजाया जाता है। प्राचीन समय में रणक्षेत्र के वाद्य समूह में इसका वादन किया जाता था। कहीं-कहीं बड़े-बड़े मंदिरों में भी इसका वादन होता है।
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