अवनद्व वाद्य और चमड़े के वाद्य ( ताल वाद्य ; झिल्ली के कम्पन वाले वाद्ययंत्र )
नौबत
नौबत अवनद्ध वाद्य है जिसे प्रायः मंदिरों या राजा-महाराजाओं के महलों के मुख्य द्वार पर बजाया जाता था। इसे धातु की लगभग चार फुट गहरी अर्ध अंडाकार कूंडी को भैंसे के खाल से मढ़ कर चमड़े की डोरियों से कस कर बनाया जाता है। इसे लकड़ी के डंडों से बजाया जाता है।
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ढोल
राजस्थान के लोक वाद्यों इसका प्रमुख स्थान है। यह लोहे या लकड़ी के गोल घेरे पर दोनों तरफ चमड़ा मढ़ कर बनाया जाता है। इस पर लगी रस्सियों को कड़ियों के सहारे खींच कर कसा जाता है। वादक इसे गले में डाल कर लकड़ी के डंडे से बजाता है।
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ताशा
तांबे की चपटी परात पर बकरे का पतला कपड़ा मंढ़ कर इसे बनाया जाता है तथा बाँस की खपच्ची से बजाया जाता है। इसे मुसलमान अधिक बजाते हैं।
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मांदल
मिट्टी से बना यह लोक वाद्य मृदंग की आकृति की तरह गोल घेरे जैसा होता है। इस पर हिरण या बकरे की खाल मंढ़ी होती है। दोनों ओर की चमड़े के मध्य भाग में जौ के आटे का लोया लगाकर स्वर मिलाया जाता है। इसे हाथ के आघात से बजाया जाता है। यह भीलों व गरासियों का प्रमुख वाद्य है। गवरी और गैर नृत्य के अलावा मेवाड़ के देवरों में इसे थाली के साथ बजाया जाता है।
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डमरू
डमरु या डुगडुगी एक छोटा संगीत वाद्य यन्त्र होता है। इसमें एक-दूसरे से जुड़े हुए दो छोटे शंकुनुमा हिस्से होते हैं जिनके चौड़े मुखों पर चमड़ा या ख़ाल कसकर तनी हुई होती है। डमरू के तंग बिचौले भाग में एक रस्सी बंधी होती है जिसके दूसरे अन्त पर एक पत्थर या कांसे का डला या भारी चमड़े का टुकड़ा बंधा होता है। हाथ एक-फिर-दूसरी तरफ़ हिलाने पर यह डला पहले एक मुख की ख़ाल पर प्रहार करता है और फिर उलटकर दूसरे मुख पर, जिस से 'डुग-डुग' की आवाज़ उत्पन्न होती है। तेज़ी से हाथ हिलाने पर इस 'डुग-डुग' की गति और ध्वनि-शक्ति काफ़ी बढ़ाई जा सकती है। .
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ढाक
ढाक आकार में मांदर और ढोल से बड़ा होता है। इसमें गमहर लकड़ी के ढांचे में मुंह को बकरे की खाल से ढंक कर बध्दी से कस दिया जाता है। इसे कंधे से लटका कर दो पतली लकड़ी के जरिये बजाया जाता है।
जुड़ी नागरा, कारहा, ढप, खंजरी, चांगु, डमरू आदि भी चमड़े से निर्मित ऐसे वाद्य हैं, जो झारखंड के विभिन्न इलाकों में बजते हैं। खास-खास समय और अवसरों पर खास वाद्य का इस्तेमाल ज्यादा होता है। हालांकि ये सब सहायक ताल वाद्य हैं।
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मृदंग
मृदंग दक्षिण भारत का एक थाप यंत्र है। यह कर्नाटक संगीत में प्राथमिक ताल यंत्र होता है। इसे मृदंग खोल, मृदंगम आदि भी कहा जाता है। गांवों में लोग मृदंग बजाकर कीर्तन गीत गाते है। इसका एक सिरा काफी छोटा और दूसरा सिरा काफी बड़ा (लगभग दस इंच) होता है। मृदंग एक बहुत से प्राचीन वाद्य है। इनको पहले मिट्टी से ही बनाया जाता था लेकिन आजकल मिट्टी जल्दी फूट जने और जल्दी खराब होने के कारण लकड़ी का खोल बनाने लग गये हैं। इनको उपयोग, ये ढोलक ही जैसे होते है। बकरे के खाल से दोनों तरफ छाया जाता है इनको, दोनों तरफ स्याही लगाया जाता है। हाथ से आघात करके इनको भी बजाया जाता है। छत्तीसगढ़ में नवरात्रि के समय देवी प
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पखावज
पखावज एक वाद्ययंत्र है। यह उत्तर-भारतीय शैली का ढ़ोलक (ड्रम) है। यह मृदंग के आकार प्रकार का परन्तु उससे कुछ छोटा एक प्रकार का बाजा है। तबले की उत्पत्ति इसी यंत्र से हुई है। कहा जाता है कि अमीर खुसरो पखावज बजारहे थे। उसी समय यह दो टुकड़ों में टूट गया। तब उन्होने इन टुकड़ों को बजाने की कोशिश की जो कि काम कर गया। इस प्रकार तबले का जन्म हुआ। .
पखावज वादक भारतीय वाद्यों में से एक पखावज बजाने वाले को कहा जाता है। पखावज उत्तरी भारत का एक थाप यंत्र है। मृदंग, पखावज और खोल लगभग समान संरचना वाले वाद्य यंत्र हैं।
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ढोली
गांवों में ब्याह शादी और अन्य अवसरों पर ढोल बजा कर आजीविका कमाने वाली राजस्थान की जाति है।.
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