तेजस्विनी : ठुमरी की रानी’ गिरिजा देवी
समय के साथ भागता संगीत भले ही ऊंचा और वैविध्यपूर्ण होता जा रहा हो, लेकिन वो उतना ही नकली हो चुका है जितना अब लखनऊ का चिकनकारी वाला कुर्ता. रंग भी है, काम भी है. सजावट भी और वही अर्धपारदर्शी अहसास. लेकिन आत्मा कहीं नहीं है. सब गाने निष्प्राण कंकालों की तरह झूलते नजर आते हैं. जिनपर आप अपने अवसाद और दंभ भुनाने के लिए नाच तो सकते हैं, सुकून नहीं पा सकते.
दिल्ली में हालांकि सुकून के कुछ अवसर आते रहते हैं. एक सबसे अहम अवसर होता था किसी बहाने, किसी आयोजन में गिरिजा देवी का आना और उन्हें गाते हुए सुन पाना. पान दबे गाल से एक खट्टी-मीठी टेर भरी वो आवाज़ जो अब शहरी महिलाओं के कंठ से सुनने को नहीं मिलती. जिसके लिए वापस लौटना ही पड़ता है गंगा की गोद में बसे इलाकों की ओर, गांवों की ओर या गांव को अपने पक्के मकानों में समेटे शहरों की ओर.
परंपराओं की गंध, मिट्टी का स्वाद और मां जैसे अपनत्व वाली ये आवाज़ थी गिरिजा देवी की. उनको गाते सुनता था तो मन करता था जाकर गोद में बैठ जाउं. एक शाम उन्हें सुन लो तो हफ्तों खुमारी छाई रहती थी. फिर कितने ही दिन उनके ऑडियो और यू-ट्यूब लिंक सुनता रहता था. इस शहर में जब-जब निराशा सिर पर नाचने लगती है, भीमसेन जोशी, किशोरी अमोनकर, गिरिजा देवी और कुमार गंधर्व ही ढांढस बंधाते हैं. राशिद ख़ान फिर से नए प्राण भरते हैं.
गिरिजा देवी की आवाज में जो ठहराव था और जो विश्वास, सच्चाई, वो लंबे संघर्षों से अर्जित हुआ था. परिवार, खासकर मां कभी भी इसके पक्ष में नहीं थीं कि वो सार्वजनिक रूप से जाएं और गाएं. वीणा वाली देवी को पूजने वाला यह समाज गाने वाली महिला को बहुत नकारात्मक दृष्टि से देखता है. लेकिन आत्मविश्वास और सच्चाई के जरिए गिरिजा हर प्रतिकूलता से लड़ती हुई गाती रहीं. यही उनकी आवाज की ताकत भी रही.
दरअसल, गिरिजा देवी की आवाज में एक टीस भरी टेर थी. यही टेर मुझे हर बार बिस्मिल्लाह खां की शहनाई में भी सुनाई दी. छन्नूलाल में यह गंवई या देसजपन नहीं है. वो मसान की होली में उड़ते फाग की तरह हैं. शिवमय, गंभीर और मीठे. लेकिन यह जो गले में बसी हुई शहनाई है न, केवल बेगम अख्तर और गिरिजा देवी को ही नसीब थी. अख्तरी बाई तो कब की अलविदा कह गईं, अब गिरिजा भी गवन बाद ससुराल चली गईं.
इस आवाज की ताकत और ठहराव को अब किसी और गले में खोज पाना मुश्किल काम है. बाकी लोग गाते हैं. कुछ उनसे सीखे या उनसे अनुसरण करने वाले भी हैं. लेकिन वो बात दूसरों में नहीं है. बाकी मधुर हैं, विविध हैं, सुगम भी. पर गिरिजा देवी जैसे गहरे, ठंडे, निर्मल और ठहराव कतई नहीं.
गिरिजा देवी का जाना संगीत की एक परंपरा में से हमारे समय की अन्नपूर्णा के चले जाना जैसा है. काशी की कहानी बिना अन्नपूर्णा के पूरी नहीं होती. और अगर अन्नपूर्णा बिना अपनी छाया प्राण प्रतिष्ठित किए चली जाएं तो यह काशी का चला जाना है. सचमुच, संगीत परंपरा का एक काशी आज खो गया, सदा के लिए सो गया.
बनारस के परिचितों, मित्रों और 'कासीवासियों' से मिलते हुए इसपर हर बार चर्चा होती है कि काशी कहां जा रहा है. काशीनाथ सिंह अपने उपन्यास 'काशी का अस्सी' में कहते हैं कि काशी धीरे-धीरे अपनी हंसी, मस्ती खोता जा रहा है. धीरे-धीरे मर रहा है. वो शायद इसीलिए क्योंकि काशी से ठहराव खत्म होता जा रहा है. ठहराव के लिए ममत्व चाहिए और ममत्व के अंतिम प्रतिबिंबों में गिरिजा देवी प्रतिष्ठित नजर आती थीं. वो चली गईं तो काशी से एक आंचल छिन गया. अब ठहराव कहां. और बिना ठहराव के आनंद नहीं आता, न आती है प्रसन्नता. बस नाहक खीस निपोरी जा सकती है.
इसलिए गिरिजा देवी का जाना केवल संगीत की एक परंपरा का अवसान भर नहीं है. गिरिजा के साथ काशी का वो सबकुछ भी खत्म होता दिख रहा है जो हमें समय के चक्रवात में सबसे बेहतर संभाले रख सकता था. चैती, झूला, कजरी, ठुमरी और सोहर गाने वाले कुछ गले आसपास खोजने पर मिल भी जाएं तो गिरिजा वाली बात कहां से मिलेगी.
एक गिरिजा ही तो थीं. अकेले छन्नूलाल अब क्या-क्या संभालेंगे. काशी का अब क्या होगा?
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