नृत्य म्हणजे काय?
नृत्य क्या है।
नृत्य एक प्रकार का सशक्त आवेग है। मनुष्य जीवन के दोनों पक्षों-सुख और दुख में नृत्य हृदय को व्यक्त करने का अचूक माध्यम है। लेकिन नृत्य कला एक ऐसा आवेग है, जिसे कुशल कलाकारों के द्वारा ऐसी क्रिया में बदल दिया जाता है, जो गहन रूप से अभिव्यक्तिपूर्ण होती है और दर्शकों को, जो स्वयं नृत्य करने की इच्छा नहीं रखते, आनन्दित करती है। परिभाषा के तौर पर देखें तो अंग-प्रत्यंग एवं मनोभाव के साथ की गयी नियंत्रित यति-गति को नृत्य कहा जाता है। नृत्य में करण, अंगहार, विभाव, भाव, अनुभाव और रसों की अभिव्यक्ति की जाती है। नृत्य के दो प्रकार हैं
• नाट्य • अनाट्य।
– मनुष्य और देवों के अनुकरण को नाट्य कहा जाता है और अनुकरण से रहित नृत्य को अनाट्य कहा जाता है। . शारीरिक गति या संचालन, नृत्य या तालबद्ध गति मनुष्य की प्राचीनतम अभिव्यक्तियों में से एक है। सभी समाजों में किसी न किसी रूप में नृत्य विद्यमान है। प्रागैतिहासिक गुफा चित्रों से लेकर आधुनिक कला मर्मज्ञों, सभी ने गति और भावनाओं के प्रदर्शन को अपनी कलाओं में बाँधने का प्रयास किया है।
शास्त्रीय नृत्य-
शास्त्रीय नृत्य में नर्तक अपनी भंगिमाओं के जरिये एक कथा को नृत्य के माध्यम से मंचन कर प्रस्तुत करता है। कुछ शास्त्रीय नृत्यों में जैसे कथकली, कुचिपुड़ी में लोकप्रिय हिन्दू पौराणिक कथाओं का अभिनय होता है।
भारतीय शास्त्रीय नृत्यों के भावापूर्ण नर्तन हेतु भंगिमाओं का जटिल भंडार होता है। शरीर के प्रत्येक अंग के लिए निश्चित भंगिमाओं का विधान किया गया है। इन अंगों में आँखें व हाथ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सिर के लिए 13, भौंहों और ठोड़ी के लिए 7-7, नाक और गालों के लिए 6-6, गर्दन के लिए 9, वक्ष के लिए 5 व आँखों के लिए 36, पैरों व इसके निचले अंगों के लिए 32 (जिनमें से 16 भूमि और 16 वायु के लिए निर्धारित हैं।) भंगिमाओं का विधान है। इसी प्रकार एक हाथ की 24 मुद्राएँ और दोनों हाथों की 13 मुंद्राएँ, एक हस्त मुद्रा के एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न 30 अर्थ हो सकते हैं। जैसे एक हाथ की पताका मुद्रा, जिसमें सभी अंगुलियों को आगे बढ़ाकर, मुड़े हुए अंगूठे के साथ मिलाकर, गर्मी, वर्षा, भीड़, रात्रि, वन, घोड़ा या पक्षियों के उड़ने की भंगिमा को दिखाया जा सकता है। पताका मुद्रा में ही तीसरी अंगुली मोड़ने का अर्थ-मुकुट, वृक्ष विवाह, अग्नि द्वार या राजा भी हो सकता है। दोनों हाथों का उपयोग कर, अंगुलियों को जोड़कर मधुमक्खी का छत्ता, जम्हाई या शंख दिखाया जा सकता है। इन अलग-अलग अर्थों के लिए हाथ की स्थिति या क्रिया भिन्न होगी। किसी एकल नृत्य नाटिका में नर्तक चेहरे का भाव, मुद्राएँ व मिजाज बदलते हुए क्रमशः दो या तीन प्रमुख चरित्रों का अभिनय करते हैं। जैसे भगवान कृष्ण, उनकी ईर्ष्यालु पत्नी सत्यभामा व उनकी सौम्य पत्नी रुक्मिणी की तीन पृथक भूमिकाओं को एक ही नर्तक व्यक्ति प्रस्तुत कर सकता है। ..
नृत्य का सौंदर्यात्मक आनंद इस बात पर निर्भर करता है कि कोई नर्तक किसी विशिष्ट भाव को व्यक्त करने व रस जगाने में कितना सफल है। शाब्दिक रूप में रस का अर्थ ‘स्वाद’ या ‘महक’ है और यह आनन्दातिरेक की मनोदशा है, जिसका अनुभव दर्शक किसी नृत्य प्रदर्शन को देखकर करता है। यही बात नाटकों पर भी लागू होती है। इन विधाओं के समीक्षक प्रस्तुति में रस पर अधिक ध्यान देते हैं। नृत्य में नौ रस हैं- शृंगार, हास्य, करुण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त। इन रसों के ग्रहण से सहृदय के अन्त:करण में मनोविकास या संस्कार रूप में संगत भाव या स्थायी भाव स्वतः जागृत हो जाते हैं जो क्रमश: हैं- रति या प्रेम, हास्य, शोक या दुःख, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा (घृणा), विस्मय, निर्वेद (राम)।
शास्त्रीय नृत्य की प्रमुख शैलियाँ-
नृत्य का यदि भारतीय परम्परा में अवलोकन करें तो यह स्पष्ट होगा कि इसकी जड़ें परम्परा के विकास क्रम में सन्निहित हैं। इसी क्रम के परिणामस्वरूप इस विशाल उपमहाद्वीप में नृत्यों की विभिन्न विधाओं ने जन्म लिया है। प्रत्येक विधा ने विशिष्ट समय व वातावरण के प्रभाव से आकार ग्रहण किया है। प्रत्येक विधा किसी विशिष्ट क्षेत्र अथवा व्यक्तियों के समूह के लोकाचार का प्रतिनिधित्व करती हैं। शास्त्रीय नृत्यों में भरतनाट्यम्, कुचिपुड़ी, कथक, कथकली, ओडिसी, मणिपुरी, मोहिनीअट्टम् और संलिय शामिल हैं।
इन नृत्यों में दो प्रकार के भाव परिलक्षित हैं। एक है तांडव और दूसरा लास्य। तांडव भगवान शिव के रौद्र पौरुप का प्रतिनिधित्व .. करता है तो लास्य शिव की पत्नी पार्वती के लयात्मक लावण्य का प्रतिनिधित्व करता है। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से जन्मे भरतनाट्यम् में लास्य की प्रधानता है और इसका उदय तमिलनाडु में हुआ है। कथकली केरल में जन्मी तांडव भाव की मूकाभिनय नृत्य नाटिका है जिसमें भारी-भरकम कपड़े पहने जाते हैं और मुख एवं हस्त पर गहरा शृंगार किया जाता है। कथक लास्य व तांडव का मिश्रण है। क्लिष्ट पदताल व लयात्मक रचनाओं की गणितीय परिशुद्धता इसकी विशेषता है। इसी प्रकार पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर के नृत्य मणिपुरी में लास्य की विशेषताएँ होती हैं। 1958 में नई दिल्ली स्थित संगीत नाटक अकादमी ने दो नृत्य शैलियों, आंध्र प्रदेश की कुचिपुड़ी व ओडिशा की ओडिसी शैली को शास्त्रीय नृत्य का दर्जा दिया। अकादमी ने वर्ष 2000 में असम के नृत्य सत्रिय को भी अपनी सूची में शामिल कर लिया। मोहिनीअट्टम और सत्रिय में लास्य की प्रधानता है। इन नृत्यों का संक्षिप्त . वर्णन निम्न प्रकार है:
भरतनाट्यम्-
इस नृत्य शैली का विकास तमिलनाडु में हुआ। यह नृत्य तमिलनाडु में देवदासियों द्वारा किया जाता था इसलिए प्राचीन काल में इसे प्रतिष्ठाच्यु समझा जाता था। लेकिन बीसवीं सदी में रुक्मणि देवी अरुंडेल और ई कृष्ण अय्यर के प्रयासों ने इस नृत्य को प्रर्याप्त सम्मान दिलाया और आज तमिलनाडु में इस नृत्य की शिक्षा ग्रहण करना नृत्याभ्यास एवं मंचन प्रतिष्ठा के विषय के रूप में देखा जाने लगा है। आज इस नृत्य के प्रमुख कलाकारों में पद्मा सुब्रह्मण्यम, अलारमेल वल्ली, यामिनी कृष्णमूर्ति, अनिता रत्नम्, मृणालिनी साराभाई, मल्लिका साराभाई, मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई, सोनल मानसिंह, स्वप्नः सुंदरी, रोहिंटन कामा और बाला सरस्वती आदि शामिल हैं। इस नृत्य में पैरों के लयबद्ध तरीके से जमीन पर थाप दी जाती है, पैर घुटने से विशेष रूप से झुके होते हैं एवं हाथ, गर्दन और कंधे विशेष प्रकार से गतिमान होते हैं। भरतनाट्यम में… शारीरिक प्रक्रिया को तीन भागों में बाँटा जाता है: समभंग, अभंग और त्रिभंग। इसमें नृत्य क्रम ।
भरतनाट्यम इस प्रकार होता है।
आलारिपु इसका मूल आशय कली का खिलना है। यह नृत्य का पहला चरण है जिसमें नर्तक अपने नृत्य, देवता और दर्शकों की स्तुति करके नृत्य शुरू करता है। इसे भूमिका भी कहते हैं। इस अंश में कविता रहती है। मिश्र छंद, करताल और मृदंग के साथ यह अंश अनुष्ठित होता है।
जातीस्वरम् : यह अंश कला ज्ञान का परिचय देने का होता है। इसमें नर्तक अपने कला ज्ञान का परिचय देते हैं। इस परिचय से तात्पर्य स्वर, ताल के साथ अंग-प्रत्यंग तथा मुद्राओं के परिचय से होता है।
शब्दम : यह तीसरे क्रम का अंश होता है। सभी अंशों में यह अंश सबसे आकर्षक अंश होता हैं। शब्दम में नाट्यभावों का वर्णन किया जाता है। इसके लिए बहुविचित्र तथा लावण्यमय नृत्य पेश करके नाट्यभावों का वर्णन किया जाता है।
वर्णम : इस अंश में नृत्य कला के अलग-अलग वर्गों को प्रस्तुत किया जाता है। वर्णम् में भाव, ताल और राग तीनों की प्रस्तुति होती है। भरतनाट्यम् के सभी अंशों में यह सबसे चुनौतीपूर्ण अंश होता है।
पदम : इस अंश में सात पंक्तियुक्त वंदना होती है। यह वंदना संस्कृत, तेलुगु, तमिल भाषा में होती है। इसी अंश में नर्तक के अभिनय कौशल का पता चलता है।
तिल्लाना : यह अंश भरतनाट्यम् का सबसे आखिरी अंश होता है। इस अंश में बहुविचित्र नृत्य भंगिमाओं के साथ-साथ नारी के सौंदर्य के अलग-अलग लावण्यों को दिखाया जाता है।
कथकली – कथकली केरल का शास्त्रीय नृत्य है। इस नृत्य में प्राचीन पुराणों की कथाओं को आधार बनाया जाता है। कथकली के बारे में आज यह माना जाता है कि यह तीन सौ या चार सौ साल पुरानी कला नहीं है, अपितु इसकी वास्तविक उत्पत्ति पंद्रह सौ साल पहले से है।
कथकली विकास की एक लंबी प्रक्रिया से गुजरी है और इसकी यात्रा ने केरल में कई अन्य मिश्रित कलाओं के जन्म और विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है। कथकली को अन्य प्रकार के नृत्य एवं कलाओं को भी सामने लाने का श्रेय है। केरल के सभी प्रारंभिक नृत्य और नाटक जैसे चकइरकोथू और कोडियाट्टम्, कई धार्मिक नृत्य जैसे मुडियाअटू, थियाट्टम् और थेयाम, सामाजिक, धार्मिक और वैवाहिक नृत्य जैसे सस्त्राकली और इजामट्क्कली और बाद में विकसित नृत्य जैसे कृष्णाअट्टम् और रामाअट्टम् आदि कथकली की ही देन हैं। कथकली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस कला में कई नृत्य और नाटकों की विशेषताओं को शामिल किया जा सकता है। कथकली अभिनय, नृत्य और संगीत तीन कलाओं से मिलकर बनी एक संपूर्ण कला है। यह एक मूकाभिनय है जिसमें अभिनेता बोलता एवं गाता नहीं है लेकिन हाथ के इशारे और चेहरे की भावनाओं के सहारे अपनी भावनाओं की सुगम अभिव्यक्ति देता है। कथकली नाटकीय और नृत्य कला दोनों है लेकिन मुख्य तौर पर यह नाटक है। इसे मुख्यतः पुरुष नर्तक करते हैं और महिला पात्रों की भूमिका भी पुरुष नर्तक ही निभाते हैं। हालाँकि अब महिलाएँ भी इस नृत्य में भाग लेती हैं।
कथकली में संगीत एक महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य तत्त्व है। इनमें एक व्यक्ति भूमिका उंगला नामक यंत्र के साथ गीत की तैयारी करता है और दूसरा झांझ और मंजीरा के साथ मिलकर इलाथम् नामक जोड़ी की रचना करता है, जिसमें चेंडा और मदालम् वाद्य भी प्रमुख हैं। कथकली संगीत की गायन शैली धीमी गति वाली एक विशिष्ट सोपान शैली में विकसित की गयी है। इसमें मुद्रास् यानी हाथ के इशारों को शाब्दिक भाषा के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, इसके साथ अभिनेता के द्वारा चेहरे के हाव-भाव, शारीरिक व्यवहार, अंगुलियों की भाषा और हाथों के इशारों के माध्यम से संगीत का अनुवाद भी किया जाता है। जैसे ही गाने की शुरुआत होती है अभिनेता अपने मूकाभिनय के साथ और अपने इशारों के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रारंभ करता है। – कथकली के अधिकांश चरित्र पौराणिक होते हैं, इसलिए नर्तकों की साज-सज्जा यानी कपड़े और शृंगार वास्तविक . आधार पर नहीं होते हैं। इनके पाँच प्रकार तय किए गए हैं जो चरित्र और गुणों का वर्णन करते हैं। ये पाँच हैं, पचा (हरा), काठी (चाकू), थोड़ी (दाढ़ी), कारी (काला) और मिनुक्कू (पॉलिश)। पचा में धार्मिक और महान चरित्र हैं। गर्वित, आक्रामक और अधिकार से वंचित चरित्र काठी के प्रकार में हैं। दाढी को तीन रूपों में समझा जा सकता है। सबसे अधिक आक्रामक और आसुरी को चवन्न थाडी (लाल दाढी), बंदर देवताओं की तरह मिथकीय चरित्र को वेला थाड़ी (सफेद दाढी), आदिवासी, वन पुरुष और गुफा में रहने वाले लोगों को करुथा थाडी (काली दाढ़ी) माना जाता है। इन सभी में सबसे निम्नतम प्रकार कारी (काला) है। सज्जन और धार्मिक (जैसे महिलाएँ, साधु, ब्राह्मण आदि) प्रकार के चरित्र मिनुक्कू (पॉलिश) के अंतर्गत आते हैं। इस नृत्य से जुड़े प्रमुख कलाकारों में गुरु रामकुट्टी, गोपालकृष्णन्, कुचूकुरुप, कलामंडलम् केसवम् नंबूदरी, कोट्टकल सिवारामन्, कलामंडलम् वासु पिशोरडी, काबुंगल, चाथुन्नी पणिक्कर, कलामंडलम् कृष्ण प्रसाद, कलामंडलम् गोपी, क्लामंडलम राजीव, कलामंडलम् बालासुब्रहमण्यम्, कलामंडलम् गोपालकृष्णन, उदय शंकर और कलामंडलम रामदास आदि प्रमुख हैं।….
मोहिनीअट्टम्-
मोहिनी का आशय है लुभाना और अट्टम् का अर्थ है नृत्य अर्थात् मोहिनीअट्टम् का. आशय लुभाने वाले नृत्य से है। यह एकल महिला द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला ऐसा नृत्य है जो रागात्मकता उत्पन्न करता है। तकनीक के स्तर पर मोहिनीअट्टम, कथकली और भरतनाट्यम् के बीच है। इसमें भरतनाट्यम् की मनोहरता और लालित्य, कथकली की ताकत और गतिशीलता है। मोहिनीअट्टम् की तकनीकी संरचना काफी हद तक भरतनाट्यम् के समान है। मोहिनीअट्टम् में इशारों की भाषा बहुत हद तक भरतनाट्यम के समान होती है लेकिन इसमें कथकली परंपरा के तत्त्व भी शामिल हैं। भरतनाट्यम की तरह मोहिनीअट्टम् शुद्ध नृत्य के साथ-साथ भाव भंगिमा वाला नृत्य है। इसमें
मोहिनीअट्टम भावनाओं के प्रवाह के साथ कदम ताल, शारीरिक हावभाव और विशेष संगीत की बारीकियों का संतुलन साधा जाता है। इसके साथ ही आँखों और इशारों की अभिव्यक्ति के लिए भी मोहिनीअट्टम कथकली की ऋणी है। भरतनाट्यम् में यदि संथाम और वीराम प्रमुख स्वभाव है तो मोहिनीअट्टम् में श्रृंगार प्रमुख है। मोहिनीअट्टम . मुख्यतः लास्य नृत्य है जिसकी प्रस्तुति नाट्यशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार होती है। मोहिनीअट्टम् की प्रस्तुति चोलकेतु, वर्णम्, पदम्, तिल्लाना, कईकोटरिकली, कुमी और स्वर के रूप में होती है। ____ मोहिनीअट्टम् नृत्य को पुनर्जीवन प्रदान करने में तीन लोगों की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। ये हैं- स्वाति थिरूनल राम वर्मा, वल्लतोल नारायण मेनन (कवि, केरल मंडलम् संस्था के संस्थापक) और कलामंडलम् कल्याणीकुट्टी अम्मा (द मदर ऑफ मोहिनीअट्टम्)। आधुनिक समय में इस नृत्य से जुड़े कलाकारों में जयाप्रभा मेनन, सुनंदा नायर, पल्लवी कृष्णन, गोपिका वर्मा, विजयलक्ष्मी, राधा दत्ता स्मिता रंजन, तारा नेदुगुडी, कनक रेले, कलामंडलम् कल्याणीकुट्टी अम्मा आदि शामिल हैं।
कुचिपुड़ी-
कुचिपुड़ी आंध्र प्रदेश की एक नृत्य शैली है। इसका जन्म राज्य के कृष्णा जिले के कुचेलापुरी या कुचेलापुरम में हुआ। कुचिपुड़ी कला का जन्म भी अन्य भारतीय शास्त्रीय नृत्यों की तरह धर्म से जुड़ा हुआ है। एक लंबे समय से यह कला आंध्र प्रदेश के कुछ मंदिरों में वार्षिकोत्सव के अवसर पर प्रदर्शित की जाती थी। पूर्व परम्परा के अनुसार यह नृत्य केवल ब्राह्मण पुरुषों द्वारा किया जाता था। यह नृत्य वास्तव में उन नाटकों का प्रदर्शन था जो तेलुगु भाषा में लिखे जाते थे। इस नृत्य नाटिका को अट्टा भागवतम् कहते थे।
कुचिपुडी का मंचन खुले और अभिनय के लिए तैयार मंचों पर होता है। इसका प्रस्तुतिकरण कुछ पारम्परिक रीतियों के साथ शुरू होता है और फिर दर्शकों के समक्ष पूरा दृश्य प्रदर्शित किया जाता है। इसके बाद सूत्रधार मंच पर सहयोगी संगीतकारों के साथ आता है और ड्रम तथा घंटियों की ताल पर नाटक की शुरुआत करता है। एक कुचिपुड़ी प्रदर्शन में प्रत्येक मुख्य चरित्र दारुवु यानि नृत्य और गीत की लघु रचना के साथ आकर अपना परिचय देता है। कुचिपुड़ी नृत्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप मटका नृत्य है जिसमें एक नर्तकी मटके में पानी भर कर और उसे अपने सिर पर रखकर पीतल की थाली में पैर जमा कर नृत्य करती है। भाभा कल्पम और गोला कल्पम इससे जुड़ी नृत्य नाटिकाएँ हैं।
इस कला की साज-सज्जा और वेशभूषा इसकी विशेषताएँ हैं। इसके मंचन हेतु महिला चरित्र कई आभूषण पहनती हैं जैसे रकुडी, चंद्र वानिकी, अडाभासा और कसिनासारा तथा फूलों और आभूषणों से सज्जित लंबी. वेणी, कुचिपुड़ी का संगीत शास्त्रीय कर्नाटक संगीत होता है। मृदंग, वायलिन और एक क्लेरियोनेट इसमें बजाए जाने वाले सामान्य संगीत वाद्य हैं। इस नृत्य शैली के प्रमुख नर्तकों में भावना रेड्डी, यामिनी रेड्डी, कौशल्या रेड्डी, राजा एवं राधा रेड्डी, वेम्पत्ति चेन्नासत्यम आदि शामिल हैं।
सत्रिया नृत्य – इस नृत्य शैली को संगीत नाटक अकादमी द्वारा 15 नवम्बर, 2000 को अपने शास्त्रीय नृत्य की सूची में शामिल किया गया। इससे पहले अकादमी की तालिका में केवल सात नृत्य थे लेकिन अब असम के इस नृत्य के आने के बाद इनकी संख्या बढ़ कर आठ हो गयी है। इस नृत्य शैली को असम के 15वीं सदी के महान भक्ति संत श्रीमंत शंकरदेव ने जन्म दिया था। शंकरदेव ने इसे अंकिया नाट के सह-प्रदर्शन के लिए विकसित किया था। अकिया नाट असम के मठों में खेला जाता था।
इस नृत्य शैली में पौराणिक गाथाओं को चुना जाता है। इस नृत्य नाटिका को पूर्व समय में केवल मठों के भीतर ही खेला जाता था और केवल पुरुष ही इसका मंचन या अभिनय करते थे लेकिन आधुनिक युग में महिलाओं ने भी इस नृत्य को सीखना शुरू किया और अब उनकी गिनती इस नृत्य के कुशल नर्तकों में होती है, इतना ही नहीं इस नृत्य की कथाओं का आधार पौराणिक से आगे बढ़ गया है।
इस नृत्य को कई विधाओं में बाँटा गया है जैसे अप्सरा नृत्य, बेहर नृत्य, चाली नृत्य, दुसावतार नृत्य, मंचोक नृत्य, रास नृत्य आदि। अन्य शास्त्रीय नृत्यों की तरह इसमें भी नाट्यशास्त्र, संगीत रलाकर और अभिनय दर्पण के सिद्धांतों का प्रयोग होता है। इसमें शंकरदेव द्वारा संगीतबद्ध रचनाओं का प्रयोग होता है। इसे बोरगीत कहते हैं जो शास्त्रीय रागों पर आधारित होते हैं। इसमें खोल (ढोल), ताल और बांसुरी का प्रयोग किया जाता है। हाल के दिनों में वायलिन और हारमोनियम का प्रयोग भी होने लगा है। इसमें नर्तक असम में निर्मित होने वाले रेशम से बने कपड़े, जिसे पट कहा जाता है, का प्रयोग करते हैं। वे इस नृत्य के लिए विशेष आभूषण भी पहनते हैं। अब इस नृत्य का प्रचार असम से बाहर भी हो रहा है। _इस नृत्य के मुख्य नर्तकों में मनीराम दत्ता मोकतर, बापूराम बयन अत्ताई, इंदिरा पी पी बोरा, परमानंद बोरबयन, जतिन गोस्वामी, माणिक बोरनयन, घनकता बोरनयन, रोसेश्वर सैकिया, भायन मोटकर आदि हैं।
ओडिसी नृत्य- ओडिशा के इस नृत्य को पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर सबसे पुराने जीवित शास्त्रीय नृत्य – रूपों में से एक माना जाता है। इस परंपरा का जन्म मंदिर में नृत्य करने वाली देवदासियों के नृत्य ।। से हुआ था। ओडिसी नृत्य का उल्लेख शिलालेखों में भी मिलता है। ब्रह्मेश्वर मंदिर के शिलालेखों और कोणार्क के सूर्य मंदिर के केन्द्रीय कक्ष में इसका उल्लेख मिलता है।
इसमें त्रिभंग पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। त्रिभंग का आशय है शरीर को तीन भागों में बाँटना यथा सिर, शरीर और पैर। इस नृत्य की मुद्राएँ और अभिव्यक्तियाँ भरतनाट्यम् से मिलती-जुलती हैं।
ओडिसी नृत्य में भगवान कृष्ण के बारे में प्रचलित कथाओं के आधार पर नृत्य किया जाता हैं। इस नृत्य में ओडिशा के परिवेश तथा वहाँ के सर्वाधिक लोकप्रिय महिमा का गान किया जाता है। इस नृत्य में प्रयुक्त होने वाले छंद् संस्कृत नाटक गीतगोविंदम् से लिए गए हैं, जिन्हें प्रेम और भगवान के प्रति समर्पण को प्रदर्शित करने में उपयोग किया जाता है। इसके प्रमुख नर्तकों में केलुचरण महापात्रा, संयुक्ता पाणिग्राही, सोनल मानसिंह कुमकुम मोहंती, गंगाधर प्रधान, माधवी मुदगल, हरेकृष्ण बेहरा, दुर्गाचरण रणबीर, रंजना गौहर, गीता महालिक, रामिल इब्राहिम, पंकज चरण दास, देबा प्रसाद दास, प्रियम्वदा मोहंती, डी एन पटनायक और रघुनाथ दत्ता आदि शामिल हैं।
मणिपुरी
यह अनमोल कलानिधि वाला नृत्य देश के पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर क्षेत्र से में प्रचलित है। मणिपुरी नृत्य भारत के अन्य नृत्य रूपों से भिन्न है। इसमें शरीर धीमी गति से चलता है और संकेतों एवं शरीर की गतियों का प्रयोग होता है। इसमें नर्तक बहुत हल्के से जमीन पर पैर रखता है। पैरों के संचालन में कोमलता और मृदुलता का परिचय मिलता है। यह नृत्य रूप 18वीं शताब्दी में वैष्णव संप्रदाय के साथ विकसित हुआ, इस नृत्य में विष्णु पुराण, भागवत पुराण तथा गीत गोविंदम् की । रचनाओं से आई विषय वस्तुएँ प्रमुख रूप से उपयोग की जाती हैं। इसलिए इस.. नृत्य का मुख्य विषय रासलीला है। इसमें प्रयुक्त वाद्य करताल, मंझीरा और दो मुख वाला ढोल या मणिपुरी मृदंग होते हैं। __इन नृत्य नाटिकाओं में बंगला और कुछ मणिपुरी गुरुओं की रचनाओं का .. प्रयोग होता है। अन्य प्रकार के शास्त्रीय नृत्यों से इसकी खासियत यह है कि इसमें घुघरू नहीं पहने जाते हैं। इस नृत्य में गोल घूमने पर ज्यादा जोर होता है। यह नृत्य अपनी नाजुक भंगिमाओं के लिए जाना जाता है। नृत्य में किसी प्रकार के तेज मोड़ नहीं होते और शरीर को कोई झटका नहीं दिया जाता एवं कुछ प्रसंगों में नर्तक की चाल सीधी रखी जाती है।
इसके विकास का श्रेय महाराज भाग्यचंद्र (1759-98) को जाता है। उन्होंने पाँच प्रकार की रास लीलाओं की चर्चा की। इसमें महारास, वसंतरास और कुंज रास ज्यादा चर्चित हुए हैं। उन्होंने गोविंदसंगीत ‘लीला विलास’ ग्रंथ लिखा जिसमें उन्होंने इस नृत्य की बारीकियों का वर्णन किया है। महाराज गंभीर सिंह ने तांडव रूप की दो रचनाएँ की। इसके अलावा महाराज चंद्रकीर्ति सिंह ने भी इसके विकास में योगदान दिया। आधुनिक समय में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसके विकास में महती भूमिका निभाई। गुरु नभकुमारः, गुरु विपिन सिंह, झावेरी बहनें-नयना, सुवर्णा, दर्शना और रंजना ने अपनी कड़ी मेहनत से इस नृत्य को प्रसिद्धि दिलाई।
कथक
कथक का आशय कथा कहने से है। कथक का नृत्य रूप तालबद्ध पदचाप, विहंगम चक्कर द्वारा पहचाना जाता है। इसमें पौराणिक गाथाओं के साथ ईरानी एवं उर्दू कविता से ली गई विषय वस्तुओं का नाटकीय प्रस्तुतिकरण किया जाता है। यह नृत्य उत्तर भारत में बेहद लोकप्रिय हुआऔर मंदिरों के अलावा दरबारी मनोरंजन तक पहुँच गया। कथक का जन्म उत्तर भारत में हुआ। किंतु ईरानी और मुस्लिम प्रभाव से यह मंदिर की रीति से दरबारी मनोरंजन तक पहुँच गया।
इसमें कथा कहने की शैली और अधिक विकसित हुई तथा एक नृत्य रूप बन गया। इस नृत्य को नटवरी नृत्य के नाम से भी जाना जाता है। मुगलों के आगमन के बाद यह नृत्य दरबार में पहुँचा। इसका प्रभाव यह हुआ कि इस नृत्य में धर्म की अपेक्षा सौंदर्य बोध पर अधिक बल दिया जाने लगा। पुराने समय में कथा वाचक गानों के रूप में इसे बोलते और अपनी कथा को एक नया रूप देने के लिए नृत्य करते।
कथक कथक के घराने
इस नृत्य शैली को संगीत के कई घरानों का समर्थन मिला। इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
जयपुर घराना : कथक के जयपुर घराने में नृत्य के दौरान पाँव की तैयारी, अंग संचालन व नृत्य की गति पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इस घराने के गुरुओं नृत्याचार्य गिरधारी महाराज व शशि मोहन गोयल ने अपनी मेहनत के जरिये इस नृत्य की परंपरा को बनाये रखा है। उनके अलावा जयपुर घराने को शीर्ष पर पहुँचाने में उमा शर्मा, प्रेरणा श्रीमाली, शोभना नारायण, राजेन्द्र गंगानी और जगदीश गंगानी ने पर्याप्त योगदान दिया है।
लखनऊ घराना : इस घराने के नृत्य पर मुगल प्रभाव के कारण नृत्य में शृंगारिकता के साथ-साथ अभिनय पक्ष पर भी । विशेष ध्यान दिया गया। शृंगारिकता और सबल अभिनय की दृष्टि से लखनऊ घराना अन्य घरानों से काफी आगे है। इस घराने की वास्तविक पहचान बनाने का श्रेय पंडित लच्छू महाराज, पंडित बिरजू महाराज को दिया जाता है।
बनारस घराना : उत्तर प्रदेश का बनारस घराना जयपुर घराने के समकालीन माना जाता है। इस घराने में गति व शृंगारिकता के स्थान पर प्राचीन शैली पर अधिक जोर दिया गया। बनारस घराने के नाम पर प्रख्यात नृत्यगुरु सितारा देवी के पश्चात् उनकी पुत्री जयंतीमाला ने इसके वैभव और छवि को बरकरार रखने का प्रयास किया है। इस घराने की एक शाखा का नाम सांवलदास जानकी प्रसाद घराना है। परंतु इस नाम के साथ विवाद है।
रायगढ़ घराना : अन्य सभी घरानों की तुलना में नया माने जाने वाले इस घराने की स्थापना जयपुर घराने के पंडित जयलाल, पंडित सीताराम, हनुमान प्रसाद और लखनऊ घराने के पंडित अच्छन महाराज, पंडित शम्भू महाराज और पंडित लच्छू महाराज ने रायगढ़ के महाराजा चक्रधर सिंह से आश्रय प्राप्त करके की। इस घराने ने इन चर्चित कलाकारों के संरक्षण में बहुत कम समय में जो ख्याति अर्जित की, वह सराहनीय है। इस घराने को लोकप्रिय बनाने में पंडित कार्तिक राम और उनके पुत्र पंडित रामलाल का योगदान अविस्मरणीय रहा है।
वर्तमान समय का कथक सीधे पैरों से किया जाता है। जबकि भरतनाट्यम् में घुटने को मोड़ा जाता है। कथक में पैरों में पहने हुए घुघरुओं को नियंत्रित किया जाता है। भरतनाट्यम् में हस्त मुद्राओं पर दिए जाने वाले बल की तुलना में यहाँ पद ताल पर अधिक जोर दिया जाता है। कथक में एक उत्तेजना और मनोरंजन की विशेषता है जो इसमें शामिल पद-ताल और तेजी से चक्कर लेने की प्रथा के कारण है। यह इस शैली की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
लोकनृत्य-
ऐसे नृत्य जो जीवन के विविध रंगों के प्रकाश के कारण आभामंडित हैं, लोकनृत्य की श्रेणी में आते हैं। ये नृत्य विशेष अवसरों पर किये जाते हैं। भारतीय लोकनृत्यों में अनंत स्वरूप और ताल हैं। इनमें धर्म, व्यवसाय और जाति के आधार पर अंतर पाया जाता है। मध्य और पूर्वी भारत की जनजातियाँ (मुरिया, भील, गोंड़, जुआंग और संथाल) सभी अवसरों पर नृत्य करती हैं। जीवन चक्र और ऋतुओं के वार्षिक चक्र के लिए अलग-अलग नृत्य हैं। नृत्य, दैनिक जीवन और धार्मिक अनुष्ठानों का अंग है। बदलती जीवन शैलियों के कारण नृत्यों की प्रासंगिकता विशिष्ट अवसरों से भी आगे पहुंच गई है।
भारतीय लोकनृत्यों का वर्गीकरण करना कठिन है, लेकिन सामान्य तौर पर इन्हें चार वर्गों में रखा जा सकता है: • वृत्तिमूलक (जैसे जुताई, बुआई, मछली पकड़ना और शिकार),
• धार्मिक आनुष्ठानिक (तांत्रिक अनुष्ठान द्वारा प्रसन्न कर देवी या दानव-प्रेतात्मा के कोप से मुक्ति के लिए) और सामाजिक
रउफ (Rouj) –
यह कश्मीर घाटी का सबसे लोकप्रिय लोकनृत्य है जिसे केवल महिलाओं द्वारा किया जाता है। यह नृत्य फसल की कटाई के मौके पर किया जाता है। इसे पवित्र रमजान के महीने में भी किया जाता है। इसी तरह यहाँ के धमाली (Dhamali) नृत्य को पुरुष करते हैं और इसे ईश्वर की कृपा पाने के लिए किया जाता है। यह यहाँ का परंपरागत नृत्य है और दरगाहों में यह बेहद लोकप्रिय है। इसमें एक व्यक्ति झंडा लेकर नृत्य दल का नेतृत्व करता है और यह आलमी झंडा जमीन में गाड़ कर उसके चारों तरफ एक वृत्त बना कर नृत्य किया जाता है।
हिक्कात (Hikkat)-
इसे कश्मीर में युवा लड़के-लड़कियाँ आपस में जोड़ा बनाकर करते हैं। इसमें नर्तक जोड़ा एक-दूसरे के हाथों को पकड़ते हुए एक पैर आपस में जोड़ता है और शरीर को थोड़ा पीछे झुकाकर नृत्य करता है। नर्तक एक-दूसरे का चेहरा देखते हुए गोल घूमते हैं। इसमें किसी प्रकार के वाद्य का प्रयोग नहीं होता और नर्तक केवल गीत के बोलों पर नृत्य करते हैं।
चक्कारी-
चक्कारी कश्मीर का सबसे लोकप्रिय लोकगायन है। इसका गायक चक्कारी गीत गाते समय उनके बोलों पर नृत्य भी करता है। इस प्रकार से नर्तक, गायक की भूमिका में भी रहता है। इसे प्रायः सभी शुभ अवसरों पर किया जाता है। इसमें रबाब, नूत, तूंबकनारी, सारंगी आदि वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है।
कूद (Kud)-
यह कश्मीरी नृत्य सामूहिक तौर पर किया जाता है। जब फसल पक जाती है तो किसान किसी पहाड़ी के पास एकत्र होते हैं और स्थानीय ग्राम देवता के समक्ष नृत्य करके उन्हें धन्यवाद देते हैं। इसमें रात में आग जलाकर उसके इर्द-गिर्द भी नृत्य किया जाता है।
जाब्रो (Jabro)-
यह लद्दाख क्षेत्र का नृत्य है और यह वहाँ के चांग-थांग क्षेत्र में ज्यादा लोकप्रिय है। इसमें महिलाएँ और पुरुष दोनों भाग लेते हैं। यह नृत्य थोड़ा धीमा शुरू होता है लेकिन अंत तक आते-आते यह तेज हो जाता है। इसे प्रायः चाँदनी रात में काफी देर तक किया जाता है और इसमें रबाब जैसा वाद्य यंत्र दमनयान बजाया जाता है।
भांगड़ा-
भांगड़ा फसल कटाई और शुभ अवसरों के समय किया जाने वाला नृत्य है। इसमें पंजाबी गीतों की धुन पर एक घेरे में लुंगी और पगड़ी पहने एक व्यक्ति ढोल बजाता है और उसके इर्द-गिर्द लोग नृत्य करते हैं। इसमें नर्तक रंगीन पगड़ियाँ बाँधते हैं और कुर्ता-धोती पहनते हैं। इसमें ढोल, ताशे और करतालों जैसे वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है।
गिद्दा-
यह नृत्य केवल महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसमें एक गोले में बोलियाँ गाई जाती हैं तथा तालियाँ बजाई जाती हैं। दो
नृत्य संबंधी ग्रंथ और उनके रचयिता प्रतिभागी घेरे से निकलकर बीच में आती हैं और अभिनयः ।
1. संगीत रत्नाकर शारंग देव (13वीं सदी) करती हैं। जबकि शेष समूह में गाती हैं। यह पुनरावृत्ति 3-4
2. संगीतोपनिषद् बाकानाचार्य (14वीं सदी) बार होती है। प्रत्येक बार दूसरी टोली होती है जो एक नई
3. हस्तमुक्तावली शुभंकर बोली से शुरुआत करती है। इसमें ढोलक वाद्य का प्रयोग होता 4. भरतारनामा
तुलजाराजा (18वीं सदी) है। यहाँ यह ध्यान रखा जाना होगा कि मालवी गिद्दा पुरुषों ।
5. आदिभारतम् । द्वारा किया जाता है। इसमें व्यंग्य भरे गीतों का प्रयोग होता है।
6. नाट्यवेदनामा… तुलजाराजा इसका उद्गम पंजाब के मालवा क्षेत्र के संगरूर जिले के गाँव ।
7. संगीत मकरन्द छत्ता से माना जाता है। इसमें तुंबी, चिमटा, सप्पो आदि वाद्ययंत्रों ।
8. गीत गोविन्द जयदेव का प्रयोग होता है। इसी तरह कीकली नृत्य भी केवल
9. नृत्य रत्नावली जय सेनापति महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसमें दो लड़कियाँ एक-दूसरे |
10. संगीत दामोदर रघुनाथ का हाथ पकड़ कर एक घेरे में गोल घूमती हैं। इसमें शामिल |
11. बालाराम भारतम् । बालाराम बर्मन अन्य लड़कियाँ गीत के साथ एक लय में तालियाँ भी बजा |
12. संगीत मल्लिका मोहम्मदशाह कर उनका उत्साहवर्धन करती हैं। कभी-कभी इसमें एक साथ |
13. गोराट शै विजय विद्यापति नृत्य कर रही लड़कियों की संख्या चार भी होती है। इसके अलावा सम्मी (Sammi) केवल महिलाओं द्वारा किया जाने वाला लोकनृत्य है। यह लोकनृत्य पंजाब के ग्रामीण इलाकों में लोकप्रिय है। इस नृत्य को बाजीगर, लोबाना और सांसी समूह की महिलाएँ बड़े चाव से करती हैं। इसमें नर्तक लहँगा और कुर्ता पहनती हैं और बालों में रजत आभूषण लगाती हैं। गिद्दा की तरह यह नृत्य भी घेरे में होता है।
गतका (Gatka)-
यह वास्तव में सिख शस्त्र-कला कौशल का प्रदर्शन है। इसमें सिख पुरुष तलवार और ढाल लेकर अपने युद्ध कौशल को नाचते हुए प्रदर्शित करते हैं।
पुंग चोलम –
यह नृत्य शैली मणिपुर की है। यह नृत्य मणिपुर के शास्त्रीय और संकीर्तन संगीत से प्रेरित है। इसे पुरुष और महिला दोनों ही करते हैं। हालाँकि यह नृत्य पुरुष प्रधान है। इसका विषय रासलीला है। इसमें एक खास प्रकार का ढोल बजाया जाता है जिसे पुंग भी कहते हैं। इस पुंग को नृत्य करते समय नर्तक गले में पहने रहता है। यह नृत्य मधुर लय से शुरू होता है और चरम पर पहुँचने पर ध्वनि तेज हो जाती है। इस नृत्य ने मणिपुर के मार्शल आर्ट थंग-ता से भी प्रेरणा ली है।
थुलाल-
इसके उद्भव का श्रेय केरल के प्रसिद्ध कवि कंचन नांबियार को है। नाट्यशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार देखें तो इस कला की तकनीक कठोर नहीं है। गीत सरल मलयालम् में होते हैं जिनमें हास्य का पुट होता है। थुलाल में जीवन के हर दिन से सीधा संबंध इसे लोकप्रिय बनाता है। थुलाल में उपयोग होने वाले वाद्ययंत्र मद्दलम् और झांझ हैं। झांझ बजाने वाले की धुन नर्तकी (थुलाकरन) को गाने में सहायता करती है। सभी थुलाल नृत्यों को तीन प्रकार में वर्गीकृत किया जाता है। ओट्टन, सीथंकन और परायन ये तीन प्रकार विभिन्न वेशभूषा, नृत्य और थुलाल गीतों के लय पर आधारित हैं।
रामाअट्टम्-
यह भगवान राम के जीवन पर आधारित केरल की नृत्य नाटिका है। यह लगातार आठ दिन सफलता के साथ चलता है। इसमें चेहरे के अभिनय और हाथों के इशारों को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। सभी गीत मलयालम् में होते हैं। रामाअट्टम् को कथकली के रूप में भी विकसित किया गया।
कोथू-
इस शास्त्रीय नृत्य का मंचन केरल के चकयार कलाकारों द्वारा कोथामबम् मंदिर में किया जाता है। यह केरल की सबसे .. पुरानी एवं नाटकीय कला में शामिल है। इसमें नर्तक के शरीर और चेहरे के हाव-भाव तथा चिह्न एवं नियोजित इशारे सांस्कृतिक ग्रंथों में वर्णित सिद्धांतों पर आधारित हैं। कोथू में हास्य तत्त्व भी है। इसके वाद्य यंत्रों में झांझ और मंजीरे की जोड़ी और एक ढोल होता है। झांझ को हमेशा महिलाओं के द्वारा ही बजाया जाता है जिन्हें ननगियार कहते हैं। कोथू को एकल तौर पर प्रस्तुत किया जाता है जिसे प्रबंधा कोथू के नाम से भी जाना जाता है।
पटाकोम-
यह केरल की नृत्य कला है जो अपनी तकनीकी में कोथू के ही समानांतर है। लेकिन इसमें नृत्य तत्त्व को लगभग छोड़ दिया जाता है और कथन को गद्य एवं गीत दृश्यों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है तथा इशारों एवं भावभंगिमाओं को बनाए रखा जाता है। इसमें नर्तकी लाल रंग के कपड़े और कलाई पर लाल रेशम का रुमाल बांधे होती है। उसके गले के चारों ओर हार तथा माथे पर चंदन के लेप लगाए जाते हैं।
कोडियाट्टम् –
केरल की इस नृत्य शैली में कलाकारों का एक समूह नृत्य नाटक का मंचन करता है इसलिए इसे कोडियाट्टम् या “एकसाथ नृत्य’ (केरल नाटक कला की शुरुआत इसी नृत्य से मानी जाती है) कहते हैं। इसमें महिला एवं पुरुष दोनों ही भाग लेते हैं। कोडियाट्टम् का सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व अभिनय है। इसका प्रदर्शन भी लंबे समय तक चलता है। नाटकों का मंचन मंदिरों में मन्नत प्रसाद के तौर पर किया जाता है।
कोडियाट्टम् का मंचन एक मंदिर की तरह बनाए गए थियेटर में किया जाता है जिसे कोथामबम् कहते हैं। इस नृत्य में ढोल, मंझीरा प्रयुक्त होता है। यह नृत्य भी लंबे समय तक चलता है। भारत में जितनी भी नृत्य कलाएँ हैं उनमें कोडियाट्टम् संभवतया सबसे पुरानी नृत्य कला है।
‘कुडियाट्टम्-
यह केरल का शास्त्रीय नृत्य है। यह देश की पुरानी नृत्य नाटिकाओं में शामिल है जिनका निरंतर प्रदर्शन हो रहा है। राजा कुलशेखर वर्मन् ने 10वीं सदी में इसमें सुधार किये थे। इसमें भास, हर्ष और महेन्द्र विक्रम पल्लव द्वारा लिखे गए नाटक शामिल हैं। पारम्परिक रूप से चकयार जाति के सदस्य इसमें अभिनय करते हैं। इसका प्रदर्शन आमतौर पर कई दिनों तक चलता है। इसमें कुछ चरित्रों के परिचय और उनके जीवन की घटनाओं को समर्पित किया जाता है। इसमें जटिल हाव-भाव की भाषा, मंत्रोच्चार, चेहरे और आँखों की अतिशय अभिव्यक्ति, विस्तृत मुकुट और चेहरे की सज्जा के साथ मिलकर कुटियाट्टम् का अभिनय करते हैं। इसमें मिझावू, छोटी घंटियों, एडक्का, कुझाल और शंख से संगीत दिया जाता है।
अष्टापडी अट्टम्-
यह जयदेव के गीत गोविंद पर आधारित केरल की प्रसिद्ध नृत्य शैली है। इसमें पाँच चरित्र होते हैं, कृष्ण, राधा और तीन अन्य महिलाएँ। यह शैली अब लगभग विलुप्त हो चुकी है। इसमें चेंडा, मदलमख् इलाथलम और चेंगला आदि वाद्यों का प्रयोग किया जाता है।
कृष्णाअट्टम्-
केरल की इस नृत्य नाटिका में भगवान कृष्ण की पूरी कहानी एक नाटक चक्र में दिखाई जाती है। इसका प्रदर्शन आठ रातों तक चलता है। इसका प्रदर्शन गुरुवायुर मंदिर में भी होता है। प्राचीन धार्मिक लोक नृत्यों जैसे थियाट्टन्, मुडियाटू एवं थियाम की कई विशेषताओं को कृष्णाअट्टम में देखा जा सकता है जिनमें चेहरे को रंगना, रंगीन मुखौटे का उपयोग, सुंदर वस्त्र और कपड़ों का उपयोग आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें मदालम, इलाथलम और गला नामक संगीत यंत्रों का प्रयोग होता है।
चाक्यारकूतु नृत्य-
यह केरल की शास्त्रीय नृत्य शैलियों में से एक है। पहले इसका आयोजन केवल मंदिर में किया जाता था। इसके नृत्यगार को कूत्तम्बलम् कहते हैं। इस शैली में स्वर के साथ कथापाठ किया जाता है, जिसके अनुरूप चेहरे और हाथों से भावों की अभिव्यक्ति की जाती है। इसके साथ सिर्फ झाँझ और ताँबे का बना व चमड़ा मढ़ा ढोल जैसा एक वाद्य यंत्र बजाया जाता है।
ओट्टनतुल्ललू नृत्य-
यह केरल की नृत्य शैलियों में से एक है। कुंचन नाम्बियार द्वारा विकसित ओट्टनंतुल्ललू नृत्य एक एकाकी नृत्य शैली है। इसमें सरल मलयालम भाषा की वार्तालाप शैली में इस नृत्य के द्वारा सामाजिक अवस्था, वर्ग–भेद, धनी-गरीब का भेद, मनमौजीपन आदि को दर्शाया जाता है। ओट्टनतुल्ललू नृत्य जनसाधारण में बहुत लोकप्रिय है।
नामागेन-
यहाँ शरद काल मनाने के लिए सितंबर के महीने में नामागेन नृत्य का आयोजन किया जाता है। इनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली नृत्य का नाम गाडीस है। इस नृत्य के परिधान ऊनी होते हैं और महिलाएँ चाँदी के भारी-भरकम आभूषण पहनती हैं। इस. नृत्य में लयात्मक ताल पर थिरकते कदमों का अद्भुत तालमेल देखते ही बनता है। इस नृत्य के साथ मुख्य रूप से नगाड़ा बजाया जाता है। नामागेन की भाँति करयाला भी एक प्रसिद्ध नृत्य है, जिसके अभिनय में छोटी-छोटी नाटिकाओं, प्रहसनों, बहुरंगी विधाओं और पैरोडी श्रृंखलाओं का उपयोग किया जाता है। इसके प्रदर्शन में सामाजिक मुद्दों और नौकरशाहों के मामलों को बहुत खुलकर और तीखे व्यंग्यों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
लोसर शोना चुकसम-
यह कृषि महोत्सव के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य है। लोसर का आशय है तिब्बती लोगों का नया साल। इस नृत्य को किन्नौरी लोगों द्वारा अनूठी शैली में पेश किया जाता है। इसमें नृत्य के दौरान बुआई से लेकर कटाई तक खेती की पूरी प्रक्रिया से संबंधित सभी गतिविधियों का प्रदर्शन किया जाता है। इस नृत्य में मूकाभिनय या माइम के रूप में नये-नये प्रदर्शनों को शामिल किया जाता है। इसमें नर्तक गाना गाने के साथ वाद्य यंत्र भी बजाता है।
लुड्डी-
लुड्डी नृत्य हिमाचल प्रदेश के मंडी में विशेष उत्सवों, मेलों व त्यौहारों के अवसर पर किया जाने वाला लोकनृत्य है। पूर्व समय में इसे केवल पुरुष करते थे लेकिन अब इसे महिलाएँ भी करती हैं। इस लोक नृत्य में युवक श्वेत चोलू या कुर्ता-पायजामा व पगड़ी पहनते हैं और युवतियाँ रंग-बिरंगे बड़े घेरेदार चोलू व पारम्परिक आभूषण पहनकर गोल-गोल घूम कर समूह नृत्य करती हैं। आरंभ में लुड्डी नृत्य धीमी गति से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे गति पकड़ता जाता है। नर्तक अपने आकर्षक हाव-भाव व पैरों को गति प्रदान करते हुए लोकवाद्यों व लोक गीतों के माध्यम से संगीत के साथ एकाकार हो जाते हैं।
नाटी नृत्य –
नाटी नृत्य हिमाचल प्रदेश में कुल्लू, सिरमौर, मंडी, किन्नौर, शिमला इत्यादि जनपदों में किया जाता है। इसे धीमी गति से आरंभ किया जाता है, जिसे आरंभ में ढीली नाटी कहा जाता है, बाद में यह द्रुत गति से बढ़ता जाता है जिसमें ढोलक, करताल, रणसिंघा, बांसुरी, शहनाई एवं नगाड़े का प्रयोग किया जाता है।
झमाकड़ा-
यह कांगड़ा क्षेत्र का नृत्य है। यह नृत्य बारात के वधू के द्वार पर पहुँचने पर होता है। उस समय महिलाएँ नए वस्त्र पहन कर बारात की अगवानी करती हैं, और मीठी-मीठी गाली-गलौज भी करती हैं। हास्य-व्यंग्य द्वारा बारातियों को संबोधित किया जाता है। झमाकड़ा नृत्य करते समय पारंपरिक पहनावे में घाघरी-कुर्ता पहना जाता है तथा चाँदी का चाक, कंठहार तथा चन्द्रहार, नथनी, पाजेब पहना जाता है। इस नृत्य में ढोलक, बांसुरी, खंजरी का प्रयोग होता है।
गिद्धा नृत्य (पडुआ)-
यह नृत्य हिमाचल प्रदेश सोलन, बिलासपुर तथा मंडी के कई स्थानों पर प्रचलित है। पंजाब में भी गिद्धा होता है परंतु यहाँ का गिद्धा पंजाब से बहुत भिन्न है। यह नृत्य अर्द्धचंद्राकार स्थिति में किया जाता है। यह नृत्य विवाह परंपरा से जुड़ा है। जब बारात वधू के घर जाती है तो उसके बाद घर की स्त्रियाँ घर पर यह मंगल नृत्य करती हैं। यह नृत्य वधू के संदर्भ में उसके साजन की प्रशंसा, जेठानी तथा सास के किस्सों से व सौत की डाह में गाए जाने वाले गीतों से जुड़ा है। ऊना जिले में भी गिद्धा नृत्य की परंपरा है जो पंजाब के गिद्धा से बहुत मिलता है।
सिंधी छम्म (सिंह नृत्य) और राक्षस छम्म –
बौद्ध संस्कृति से प्रभावित लाहौल-स्पीति जनपद में होने वाले इस सिंह नृत्य में लामा या बौद्ध धर्म से जुड़े लोग सिंह का वेश धारण कर पारंपरिक लोक वाद्यों की ताल पर नृत्य करते हैं। इसमें यह धारणा है कि विकट रूप धारण करने से दुष्ट आत्माएँ तंग नहीं करती हैं। इसी तरह राक्षस छम्म में मुखौटा पहन कर नृत्य किया जाता है।
गी नृत्य-
हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में लोहड़ी पर्व के अवसर पर गी नृत्य किया जाता है। इसमें गायक एक घेरा बना कर बैठते हैं और एक धेरे का एक व्यक्ति बीच में जाकर संगीत पर नृत्य करता है। इसमें गाँव में पैदा हुई लडकियाँ ही नृत्य कर सकती हैं। सिरमौर का एक अन्य प्रसिद्ध नृत्य रास है। यह ब्रज और मणिपुर के रास से भिन्न होता है।
बूरहा नृत्य-
यह हिमाचल प्रदेश के युद्ध कौशल को दर्शाने वाला नृत्य है जिसमें नर्तक कुल्हाड़ी लेकर नृत्य करते हैं। इसमें पौराणिक नायकों की गाथा गाई जाती है। इसमें स्थानीय वाद्य हुलकी बजाया जाता है। इसी तरह थोढा नृत्य में धनुष-बाणों का प्रदर्शन होता है। इसी तरह कुल्लू में होने वाले युद्धकौशल के नृत्यों में खारैत, उजगजामा, छादेग्बिरक, लुडी बंथा. और ढीली फेंटी एवं बसारी नृत्य प्रसिद्ध हैं। ये नृत्य हथियार लेकर किये जाते हैं। इनमें देशभक्ति और परंपरा से जुड़े गीतों पर नृत्य किया जाता है।
शुतो –
लाहौल-स्पीति में होने वाले इस नृत्य में भगवान बुद्ध की प्रशंसा की जाती है। शब्बो नृत्य पर्वो पर और गाफिला नृत्य जोड़े में किया जाता है। दोदरा कंवर नृत्य खेती से जुड़ा है।
माला कायड और जातरू कायड-
जातरू कायड त्यौहारों के अवसर पर आयोजित होता है और इसमें पर्व से संबंधित गीत गाए जाते हैं। माला कायड में पारंपरिक वेशभूषा से सज्जित नर्तक एक-दूसरे को गुणा चिह्न के अनुरूप पकड़ते हैं। शन और शाबू लाहौल घाटी के लोकप्रिय नृत्य हैं। शन प्रकार के नृत्य का अभिप्राय भगवान बुद्ध की स्तुति से है। जबकि शाबू इस क्षेत्र में फसल कटने के बाद किया जाता है।
गरबा-
गुजरात का अत्यन्त लोकप्रिय नृत्य गरबा विशेष रूप से नवरात्री पर्व पर किया जाता है। इस लोकनृत्य में स्त्रियाँ घेरा बनाकर वृत्ताकार रूप में नृत्य करती हैं। वृत्त के बीच में एक महिला सिर पर घड़ा रखे हुए खड़ी होती है। घड़े पर एक जलता हुआ दीपक रखा होता है। गरबा देवी दुर्गा की आराधना में किया जाता है
घूमर – घूमर लोकनृत्य राजस्थान, पंजाब, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में प्रचलित है। यह नृत्य केवल महिलाओं द्वारा होली तथा नवरात्री के अवसर पर किया जाता है। महिलाएं अपने शरीर को घुमाकर नृत्य करती हैं, इसीलिए इस नृत्य को घूमर नृत्य कहते हैं।
बिहू नृत्य –
बिहू असम का लोकप्रिय लोकनृत्य है। बिहू नृत्य असम की कचारी, खासी आदि जनजाति के लोग सामूहिक रूप से करते हैं। बिहू नृत्य के तीन रूप हैं, जो एक ही वर्ष में विभिन्न अवसरों पर किए जाते हैं…
(i) बोहाग बिहू – नववर्ष के स्वागत हेतु
(ii) माघ बिहू – धान की फसल के पकने पर
(iii) बैशाख बिहू – वसन्त उत्सव पर
पिण्डवानी-
पण्डवानी छत्तीसगढ़ राज्य का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। इस लोकनृत्य का मूल आधार पांडवों की कथाएँ हैं। इसी कारण इसे पण्डवानी नृत्य कहा जाता है। इसमें नृत्य एवं अभिनय द्वारा पाण्डवों की कथाएँ, एकतारे के साथ प्रदर्शित की जाती हैं। इस नृत्य से संबंधित कलाकार हैं–तीजन बाई, ऋतु वर्मा आदि।
कालबेलिया-
यह राजस्थान की कालबेलिया जनजाति का प्रसिद्ध लोकनृत्य है, जो महिलाओं द्वारा किया जाता है।
तेरहतालीम-
राजस्थान का एक प्रसिद्ध लोकनृत्य है, जो महिलाओं द्वारा किया जाता है। इस नृत्यः । में गायन पुरुषों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य में नर्तकी लय के साथ हाथ-पाँव में बँधी घंटियों को बजाकर नृत्य करती हैं।
रासलीला-
रासलीला भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं पर आधारित लोकनृत्य है। यह लोकनृत्य उत्तर प्रदेश के मथुरा, वृन्दावन, गोकुल आदि क्षेत्रों में प्रचलित है। इस नृत्य में नर्तक राधा-कृष्ण तथा गोप और गोपियों का रूप धारण करके नृत्य करते हैं।
छाऊ नृत्य-
छाऊ का आशय छाया अथवा मुखौटा से होता है। छाऊ नृत्य बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में प्रचलित है। यह नृत्य-गीत फाल्गुन माह में तीन दिन तक चलता है।
तमाशा-
तमाशा महाराष्ट्र का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। पहले यह ‘गाथा’ पर आधारित था जिसमें । प्रेम-प्रसंग और छेड़छाड़ वाले दोहे बोले जाते थे, लेकिन बाद में इसे रंगमंच पर किया जाने लगा।
‘बाँस नृत्य
बाँस नृत्य मिजोरम के आदिवासियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है। यह नृत्य बाँस के डण्डों को आपस में बजाकर किया जाता है। यह नृत्य की एक चुनौतीपूर्ण शैली होती है।
सरहुल नृत्य
यह लोकनृत्य छोटा नागपुर क्षेत्र तथा छत्तीसगढ़ की ओरांव जनजाति का नृत्य है। यह नृत्य चैत्र मास में फसल की कटाई पर किया जाता है। सरहुल की विशेषता यह है कि यह अविवाहित युवक व युवतियों द्वारा किया जाता है।
डांडिया
डांडिया गुजरात, राजस्थान एवं महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित है। इसमें महिलाएँ एवं पुरुष विशेष परिधान पहनकर डेढ़-डेढ़ फुट के डंडों के साथ नृत्य करते हैं।
चारकुला-
चारकुला उत्तर प्रदेश के ब्रज क्षेत्र का लोकप्रिय नृत्य है, जो मुख्य रूप से होली के अवसर पर किया जाता है। इस नृत्य में महिलाएँ दीपक रखे हुए किसी पहिए को सिर पर रखकर नृत्य करती हैं।
नौटंकी-
नौटकी मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश का प्रमुख लोकनृत्य है, जो मेलों अथवा विवाहोत्सवों पर किया जाता है। नौटंकी में नृत्य, नाटक एवं संगीत सभी शामिल हैं।
यक्षगान कर्नाटक का पारम्परिक नृत्य नाट्य है। इसका प्रमुख विषय पौराणिक धर्म कथाएं होती हैं। इन पौराणिक कथाओं के भावों को व्यक्त करने के लिए कथावस्तु में गीत और संगीत को भी जोड़ा जाता है। इसकी प्रस्तुति में चेंड और मेडल, घटियों जैसे वाद्यों का प्रयोग भी होता है। कलाकारों का भव्य और भड़कीला . शृंगार किया जाता है। उनके आभूषण लकड़ी के होते हैं और उन्हें शीशे व सुनहरे कागजों से सजाते हैं। कलाकार विशाल मुकुट भी पहनते हैं। यक्षगान में युद्ध का । मंचन भी होता है। शास्त्रीय नृत्य एवं उससे जुड़े नर्तक एवं नर्तकियाँ
1. भरतनाट्यम्-अरुण्डेल रुक्मिणी देवी, यामिनी, कृष्णमूर्ति, एस. के सरोज, सोनल मानसिंह, टी. बाला सरस्वती, ई. कृष्ण अय्यर, रामगोपाल, पद्मा सुब्रह्मण्यम्, स्वप्नसुन्दरी, मृणालिनी साराभाई, रोहिण्टन कामा, मालविका सरकार, वैजयन्तीमाला बाली, कोमला वर्धन आदि।
2. कथकली-वल्लतोल नारायण मेनन, रामगोपाल, मृणालिनी साराभाई, शान्ताराव, उदयशंकर, आनन्द शिवरामन, कृष्णन कुट्टी आदि।
3. कथक-लच्छू महाराज, अच्छन महाराज, सुखदेव महाराज, शम्भू महाराज, नारायण प्रसाद, जयलाल, दमयन्ती जोशी, सितारादेवी, चन्द्रलेखा, भारती गुप्ता, शोभना नारायण, मालविका सरकार, गोपीकृष्ण, बिरजू महाराज आदि।
4. कुचिपुड़ी-वेम्पति सत्यनारायणन्, यामिनी कृष्णमूर्ति, राजा रेड्डी, लक्ष्मीनारायण शास्त्री आदि। 5. ओडिसी-इन्द्राणी रहमान, काली चन्द्र, कालीचरण पटनायक, संयुक्ता पाणिग्रही, मिनाती दास, मायाधर राउत, रंजना डेनियल्स, प्रियंवदा मोहन्ती, माधवी मुद्गल आदि।
6. मणिपुरी-रीता देवी, सविता मेहता, थाम्बल थामा, सिंहजीत सिंह, झावेरी बहनें, कलावती देवी, निर्मला मेहता, गाम्बिती देवी
आदि।
7. मोहिनीअट्टम्-तारा निडुगाड़ी, तंकमणि, के. कल्याणी अम्मा, भारती शिवाजी, श्रीदेवी, सेशन मजूमदार, कला देवी, गाता गायक, कनक रेले, रागिनी देवी आदि।
भारत के विभिन्न राज्यों में प्रचलित लोकनृत्य
1. आंध्र प्रदेशः गो-बी, भामाकलप्पम्, बुढ़कथा, वीरानाट्यम, बुट्टामोम्मालू, टापट्टा गुल्लू, लब्माडी, धीमसा, कोलट्टम, चिंडू,बोतालू, बाथारवम्मा और माधुरी आदि।
2. लक्षद्वीप: लावा, परिचाकाली, कोलकाली आदि। –
3. बिहार: जट-जट्टिन, विदापत (विद्यापति), जोगीडा, कठधोडवा, झिंझियाँ, पवडिया, खोलडिन, लौन्डा, झूमर, करमा, झरनी,
4. अंडमान-निकोबारः शूकर उत्सव या ओस्सुआरी उत्सव पर यहाँ के आदिवासी पूरी रात नृत्य करते हैं। यह पर्व परिवार के वरिष्ठ लोगों की याद में मनाते हैं।
1. सिक्किमः मारूनी, तमांग सेलो, सिंगी छाम, जो-मल-लोक, ताशी सबदो, याक नृत्य आदि।
6. अरुणाचल प्रदेश: बारछो छाम, पोनयंग, भुइयाँ, खम्पाटी वाचो।
7. छत्तीसगढ़ः पंथी, सुआ, रावत, करमा, डोमकम, सरहुल, घासियाबाजा आदि।
8. गोवाः तरंगामोल, कुनबी, सामयी, जागर, रनमाले, गोंफ, तोन्या मल्ले, देखनी, दशावतारा, घोड़े मोड़नी, झागोर और गफ्फ आदि।
9. गुजरातः गरबा, डांडिया, पनिहारी, टिप्पनी (सौराष्ट्र), भवई, पढार, रास, झकोलिया आदि।
10. हिमाचल प्रदेश: महाथू, सांगला, सैंती, छपेली, छारवा आदि।
11. हरियाणाः फाग, संग, छत्ती, खोडिया, घूमर, झूमर, धुग्गा, लूर, धमाल आदि।
12. कर्नाटकः यक्षगान, बायतुला, डोल्लु कुनीथा, वीरागास्से, भूतकोला, कुर्ग, भूतकोला (तुलु क्षेत्र) आदि।
13. केरल: पदियानि, ककारिसी काली, डापू काली, सरपम थुलाल, भद्रकली थुलाल, वेलाकली, थिव्वायटू, कोलम थुलाल, थंपी थुलाल, खुम्मी, कोडुवा, देसुथुकाली, थिरायेट्टम, कुम्माटी, अर्जुन नृत्यम्, मुदीयेटू, कुथीयोट्टम्, पोरराक्कली, गारुडम थोक्काडम, थोलापावाकथथु, कृष्णन्नोत्तम, मथालीअट्टम कझाई कोथू आदि।
14. मध्यप्रदेशः तेरताली, पंडवानी, जावारा, मटकी, फूलती, गिरदा, माच, गौड मुडिया, बिल्मा, टपारी, सींगमडिया, भागोरिया, . . रीना, छत, छेरिया आदि।
15. महाराष्ट्रः तमाशा, लावणी, कोली, पोवडम, धंगारी गजा, डिंडी. कला, दहिकला, ललिता आदि।
16. मणिपुरः पुंगकोलोन, माइबी, खंभा, लाई हरोबा, नूपा, थांग्टा, कीतलम, राखाल, रासः (बसंत, महारास, नट) आदि।
17. मिजोरमः चेरवा, खुल्लम, चैलम, स्वालाकिन, च्वानारलाईजन, छीइयेलम, जांगटालम, सरलामकई, परलाम आदि।
18. नागालैण्डः चांग लो, सुआ, जेमिज, जेईलांग, नूरालिम, चोगलिम आदि।
19. मेघालयः नांगक्रम, शादः सुखमाईसियम, बेहदीखलम, वांगला, डोरेसगाता, लाहो आदि।
20. त्रिपुराः गारिया, लेबांग, होजागिरि, बिजू, हाई-हाक, वांगेला, स्वागत (वेलकम) आदि।
21. असमः बिहू, सतारिया, बारपेटा, जूमर, बागुरुउम्बा (बोडो), आली-आई-लियांग, भोरताल, छा बागानर, हसारी, बिहून्स, धुलिया, बांवारिया, देवधानी, जिकरीस, मोहाडहाडु या महाखेड़ा, बिछुआ, बोईसाजू, होब्जानई, राखललीला, चौगंबी, और अप्सरा-सबाह आदि।
22. ओडिशाः पाला, छाऊ (रुक मार नाचा) डंडा नट, घूमर, करमा, केईसावाडी जदूर मदारी कठपुतली, चांगू, घंटा पटुआ, केला केलुनी, ढलखई, दसकठिया, छैती घोडा पैका, अया, प्रहलाद नाटका, भरत लीला, देवधानी, दीपा धुलिया घुडकी नबारंगा नट और धानु जात्रा।
23. तमिलनाडुः कारागाट्टम, कुम्मी, मवियाअट्टम, कईसिलाम्बु, चक्कीआट्टम, थाप्पअहम, भागवतानंदनम, थेरुकोथा, देवारत्तनम, ओविलाअट्टम, कालीअट्टम, सेवईअट्टम, उरुम्मी, कुरुवंजी, कारागट्टम, कोलाअट्टम, कावाडीअट्टम, नोंडी नाटकम, पोवाई कोथू, काई सिलाम्बू अट्टम, माइलअट्टम, कनमांडीया कमन पांडिगई, देवारत्तम, पाम्पू, ओविलाट्टमख, पुलियाअट्टम, पोईकाल कुदारई, बोम्मलाअट्टम आदि।
24. पश्चिम बंगाल: बृत्ता, छाऊ, गंभीरा, तासू, संथाली, लाठी, करमा, बूरा, काली, व्रता, कालीकापातदी, नसनी, अकल्प, डोमनी आदि।
25. झारखंडः संथाली, झूमर, पाईका, छाऊ, भेजा, सारहुल, फागुआ, जदूरख्, जात्रा झसी, पांवडिया, झिझिया, खोलडिन आदि।
26. उत्तराखंडः पांडौ, रणभूत, थडया, चौफुला, खुदेड, घसियारी, चांचरी, बौछडों, छपेली, केदरा, सरौं, बौ-सरेला, छेपती, घुघती, फौफटी, बनवारा, लांघवीर, बराडा जात्रा, झोंडा, भैला, खुसौडा, थाली, कुलाचार, झुमेलो, सुई आदि।
27. उत्तर प्रदेश: रामलीला, रासलीला, नौटंकी, चारकुला, जोगिनी, शैरा, धुरिया, छोलिया, छपेली, नटवरी, देवी, पाईडंडा, राई, दीप, ख्याल, नक्काल, स्वांग, दादरा, झूला आदि।
28. पंजाब: भांगड़ा, गिद्दा, मालवी गिद्दा, घूमर, कुरथी, कीकली, सम्मी, डंडास, लुड्डी, और जिंदुआ।
29. पुड्डुचेरी: गराडी
30. राजस्थानः गैर, चंग, डांडिया, बमरसिया, घूमर, तेरहताली, घुड़ला, शंकरिया, कच्छी घोड़ी, पणिहारी, बागडिया, गवरी, वालर, घुडला, गोवारी, कालबेलिया, गैर और भवाई आदि।
31. दमन और दीव: मांडो, वेरडीगाओ, वीरा।
32. दादरा एवं नगर हवेली: भावदा, तारपा, बोहाडा, तुर और थाली, ढोल, घेरिया।
33. जम्मू कश्मीरः रौफ या रऊफ, धमाली, हिक्कात, चक्कारी, कूद जगराना, जाब्रो, लाडीशाह आदि।
चौंसठ कलाओं का परिचय .
प्राचीन साहित्य में वर्णित चौंसठ कलाओं में नृत्य को भी कला के रूप में स्वीकृति दी गयी है। हालाँकि इनके नामों पर विभिन्न विद्वानों में मतभेद है लेकिन संख्या को लेकर ये सभी एकमत हैं। टीकाकार जयमंगल के अनुसार इन कलाओं की सूची इस प्रकार है- .
1. गीत कला
2. वाद्य कला
3. नृत्य कला
4. आलेख्य कला
5. विशेषकच्छेद्य कला (मस्तक पर तिलक लगाने के लिये कागज, पत्ती आदि काटकर आकार या साँचे बनाना) 6. तण्डुल-कुसुमबलिविकार कला (देव-पूजनादि के अवसर पर तरह-तरह के रंगे हुए चावल, जौ आदि वस्तुओं तथा रंगबिरंगे फूलों को विविध प्रकार से सजाना)
7. पुष्पास्तरण कला
8. दशनवसनांगराग कला (दाँग, वस्त्र तथा शरीर के अवयवों को रंगना)
9. मणिभूमिका-कर्म कला (घर के फर्श के कुछ भागों को मोती, मणि आदि रत्नों से जड़ना)
10. शयनरचन कला (पलंग लगाना)
11. उदकवाद्य (जलतरंग)
12. उदकाघात कला (दूसरों पर हाथों या पिचकारी से जल की चोट मारना)
13. चित्राश्व योगा कला (जड़ी-बूटियों से औषधियाँ बनाना) …
14. माल्यग्रंथनविकल्प कला (माला गूंथना).
15. शेखरकापीड़योजन कला (स्त्रियों की चोटी पर पहनने के विविध अलंकारों के रूप में पुष्पों को गूंथना)
16. नेपथ्यप्रयोग कला (शरीर को वस्त्र, आभूषण, पुष्प आदि से सुसज्जित करना).
17. कर्णपत्रभंग कला (शंख, हाथीदाँत आदि के अनेक तरह के कान के आभूषण बनाना)
18. गंधयुक्ति कला (सुगंधित धूप बनाना)
19. भूषणयोजन कला
20. ऐन्द्रजाल कला (जादू के खेल)
21. कौचुमारयोग कला (बल-वीर्य बढ़ाने वाली औषधियाँ बनाना)
22. हस्तलाधव कला (हाथों को काम करने में फुर्ती और सफाई)
23. विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकार-क्रिया कला (तरह-तरह के शाक, कढी, रस, मिठाई आदि बनाने की क्रिया)
24. पानकरस-रागासव-योजन कला (विविध प्रकार के शर्बत, आसव आदि बनाना)
25. सूचीवान कर्म कला (सुई का काम, जैसे सीना, रफू करना, कसीदा काढ़ना, मोजे-गंजी बुनना)
26. सूत्रक्रीड़ा कला (तागे या डोरियों से खेलना, जैसे कठपुतली का खेल)
27. वीणाडमरूकवाद्य कला
28. प्रहेलिका कला (पहेलियाँ बूझना)
29. प्रतिमाला कला (श्लोक आदि कविता पढ़ने की मनोरंजक रीति)
30. दुर्वाचकयोग कला (ऐसे श्लोक आदि पढ़ना जिनका अर्थ और उच्चारण दोनों कठिन हो)
31. पुस्तक-वाचन कला
32. नाटकाख्यायिका दर्शन कला
33. काव्य समस्यापूरण कला
34. पट्टिकावेत्रवानविकल्प कला (पीढ़ा, आसन, कुर्सी, पलंग, मोढ़े आदि वस्तुएँ बेंत आदि सामग्रियों से बनाना) 35. तक्षकर्म कला (लकड़ी, धातु को विभिन्न आकारों में काटना)
36. तक्षण कला (बढ़ई का काम)
37. वास्तुविद्या कला
38. रूप्यरत्नपरीक्षा कला (सिक्के, रत्न आदि की परीक्षा करना)
39. धातुवाद कला (पीतल आदि धातुओं को मिलाना, शुद्ध करना आदि)
40. मणिरागाकर ज्ञान कला (मणि आदि को रंगना, खान आदि के विषय का ज्ञान)
41. वृक्षायुर्वेदयोग कला
42. मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधि कला (मेंढे, मुर्गे, तीतर आदि को लड़ाना)
43. शुकसारिका प्रलापन कला (तोता-मैना आदि को बोली सिखाना)
44. उत्सादन-संवाहन केशमर्दनकौशल कला (हाथ-पैरों से शरीर दबाना, केशों का मलना, उनका मैल दूर करना आदि)
45. अक्षरमुष्टि का कथन (अक्षरों को ऐसी युक्ति से कहना कि उस संकेत को जानने वाला ही उनका अर्थ समझे दूसरा नहीं मुष्टिसंकेत द्वारा बातचीत करना जैसे दलाल आदि कर लेते हैं)।
46. म्लेच्छित विकल्प कला (ऐसे संकेत से लिखना, जिसे उस संकेत को जानने वाला ही समझे)
47. देशभाषा-विज्ञान कला.
48. पुष्पशकटिका कला
49. निमित्तज्ञान कला (शकुन जानना)
50. यंत्र मातृका कला (विविध प्रकार के मशीन, कल-पुर्जे आदि बनाना)
51. धारणमातृका कला (सुनी हुई बातों का स्मरण रखना)
52. संपाठ्य कला
53. मानसी काव्य-क्रिया कला (किसी श्लोक में छोड़े हुए पद को मन से पूरा करना),
54. अभिधानकोष कला
55. छन्दोज्ञान कला
56. क्रियाकल्प कला (काव्यालंकारों का ज्ञान)
57. छलितक योग कला (रूप और बोली छिपाना)
58. वस्त्रगोपन कला (शरीर के अंगों को छोटे या बड़े वस्त्रों से यथायोग्य है
59. द्यूतविशेष कला
60. आकर्ष-क्रीड़ा कला (पासों से खेलना)
61. बालक्रीड़न कला
62. वैनयिकी ज्ञान कला (अपने और पराये से विनयपूर्वक शिष्टाचार करना)
63. वैजयिकी-ज्ञान कला (विजय प्राप्त करने की विद्या अर्थात् शस्त्रविद्या).
64. व्यायाम विद्या कला
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