रागों का समय सिद्धांत
रागों का समय सिद्धांत
राग काल
राग काल निर्धारण के अध्ययन में अध्वदर्शक स्वर व परमेलप्रवेशक राग की समझ आवश्यक है।
अध्वदर्शक स्वर
प्रात:कालीन संधिप्रकाश रागों में शुद्ध मध्यम की प्रबलता के साथ कोमल ‘रे ध’ का प्रयोग बहुलता से होता है। इस समय के कुछ रागों में तीव्र मध्यम का प्रयोग भी होता है। किन्तु शुद्ध मध्यम की अपेक्षा, वह दुर्बल रहता है। ललित, परज, रामकली इसके उदाहरण हैं। उसके बाद दूसरे प्रहर के और तीसरे प्रहर के रागों में ‘रे ध’ कोमल वाले राग और फिर ‘रे ध’ शुद्ध वाले रागों का गायन वादन होता है। दिन के अंतिम प्रहर में कोमल ‘ग नी’ वाले राग गाये जाते हैं। सायं कालीन संधिप्रकाश रागों में पुन: ‘रे ध’ कोमल की बहुलता हो जाती है। किन्तु इन रागों में शुद्ध मध्यम की अपेक्षा तीव्र मध्यम प्रबल होता है। दूसरे और तीसरे प्रहर के रागों में क्रमश: ‘रे ध’ शुद्ध वाले तथा ‘ग नी’ कोमल वाले रागों की बहुलता हो जाती है। रात्रि के चौथे प्रहर के राग प्रात:कालीन संधिप्रकाश रागों से प्रभावित होने लगते हैं।
प्रचलित रागों की समय व्यवस्था देख कर ही उपरोक्त वर्गीकरण किया जाता है। इन नियमों में एक बात स्पष्ट परिलक्षित होती है वह यह कि प्रात:कालीन व सायंकालीन संधिप्रकाश रागों में ‘रे ध’ का कोमल होना एक सा ही है किन्तु प्रात:कालीन रागों में शुद्ध मध्यम की प्रबलता तथा सायंकालीन रागों में तीव्र मध्यम की प्रबलता सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार के किसी राग को सुन कर और मध्यम की स्थिति देख कर उसके प्रात:कालीन अथवा सायंकालीन होने का निर्णय किया जा सकता है। इस प्रकार राग समय निर्धारण में मध्यम एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और मध्यम की इसी विशेषता के कारण उसे ‘अध्वदर्शक’ कहा जाता है।
परमेलप्रवेशक राग
भारतीय संगीत की परंपरा में रागों का समय चक्र उसकी एक विशिष्टता के रूप में जाना जाता है। स्वरों की स्थिति, इन रागों के समय निर्धारण में अत्यंत महत्वपूर्ण है। समस्त रागों को २४ घण्टे के दिवा-चक्र के अंतर्गत, तीन-तीन घण्टों के प्रहर में बाँटा गया है। आधुनिक विद्वानों ने काल को दो भागों में विभाजित किया है।
प्राचीनकाल से प्राप्त ब्रह्म-मुहूर्त — प्रात: ४ बजे — से आरम्भ हो संध्या ४ बजे तक, और संध्या ४ बजे से प्रात: ४ बजे तक।
प्रथम प्रहर प्रात: ४ बजे से ७ बजे तक,
द्वितीय प्रहर ७ बजे से १० बजे तक,
तृतीय प्रहर १० से १ बजे तक, और
चतुर्थ प्रहर १ से ४ तक माना गया।
ठीक यही समय संध्या ४ से ७, ७ से १०, १० से १ व १ से ४ बजे तक का है।
पहला प्रहर तो संधिप्रकाश रागों का होता है, चाहे प्रात: का हो या संध्या का।
दूसरा प्रहर और तीसरे प्रहर में पहले कोमल व बाद में शुद्ध ‘रे ध’ स्वर वाले राग का समय निर्धारित किया गया। तत्पश्चात् अंतिम प्रहर में कोमल ‘ग नी’ वाले राग आते हैं। इन्हीं में कुछ राग ऐसे भी हैं जिनमें एक प्रहर के गुण के साथ साथ दूसरे प्रहर के भी गुण आ जाते हैं। यथा- राग जयजयंती या राग मालगुञ्जी। ये राग शुद्ध ‘रे ध’ वाले खमाज ठाठ से कोमल ‘ग नी’ वाले काफी ठाठ में प्रवेश करते हैं अस्तु इन रागों में इन दोनों ही ठाठों के गुण आ जाते हैं। यानि ‘रे ध’ शुद्ध और दोनो नी का प्रयोग होना खमाज का लक्षण व ‘ग नी’ कोमल काफी ठाठ का लक्षण, राग जयजयवंती में प्रत्यक्ष ही है।
ऐसे रागों को जो एक ठाठ से दूसरे ठाठ में प्रवेश करते हैं ‘परमेलप्रवेशक’ राग के रूप में जाना जाता हैं।
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