Raag
मियाँ की मल्लार
वादी: म
संवादी: सा
थाट: KAFI
आरोह: रेमरेसा मरेप नि॒धनिसां
अवरोह: सांनि॒प मपग॒मरेसा
पकड़: रेम रेसा ऩि॒प़म़प़ऩि॒ध़ऩिसा पग॒मरेसा
रागांग: उत्तरांग
जाति: SAMPURN-SHADAV
समय: रात्रि का द्वितीय प्रहर
विशेष: उभय निषाद, वर्षा ऋतु में
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मालीगौरा
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मालगुंजी
यह बहुत ही मीठा राग है। यह बागेश्री से मिलता जुलता राग है। आरोह में शुद्ध गंधार लगाने से यह राग बागेश्री से अलग होता है। इसमें आरोह में शुद्ध गंधार और अवरोह में कोमल गंधार का प्रयोग किया जाता है।
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मारवा
राग मारवा माधुर्य से परिपूर्ण राग है। इस राग में रिषभ और धैवत प्रमुख स्वर हैं। जिस पर बार बार ठहराव किया जाता है, जिससे राग मारवा स्पष्ट होता है। इस राग का विस्तार क्षेत्र सीमित है। राग पूरिया इसका सम प्राकृतिक राग है। परंतु राग पूरिया में गंधार और निषाद पर ज्यादा न्यास किया जाता है। इस राग का विस्तार मध्य सप्तक में ज्यादा किया जाता है। इस राग को गाने से वैराग्य भावना उत्पन्न होती है।
यह स्वर संगतियाँ राग मारवा का रूप दर्शाती हैं - सा ; ,नि ,ध ,नि रे१ ; ग म् ध ; म् ग रे१ ; ,नि ,ध रे१ सा ; म् ध ; ध नि रे१' नि ध ; म् ध ; म् ग रे१ ; ग रे१ ,नि ,ध रे१ सा ;
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मांड
राग मांड चंचल तथा क्षुद्र प्रक्रुति का, सुनने में सहज परंतु गायन वादन में कठिन राग है। मांड गायन वादन का विशेष प्रचार मारवाड में है। राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात के गीत, लोकगीत आदि इस राग की लहरियों से सजे हुए हैं।
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मलुहा
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मधुकौंस
राग मधुकौंस अपेक्षाकृत नया राग है और अत्यंत प्रभावशाली वातावरण बनाने के कारण, कम समय में ही पर्याप्त प्रचलन में आ गया है। गंधार कोमल से मध्यम तीव्र का लगाव, इस राग में व्यग्रता का वातावरण पैदा करता है जो विरहणी की व्यग्रता को दर्शाता हुआ प्रतीत होता है। इसलिए इस राग में विरह रस की बंदिशें अधिक उपयक्त होती हैं। यह मींड प्रधान राग है। गुणीजन इस राग को राग मधुवंती और राग मालकौंस का मिश्रण मानते हैं। सा ग१ म् प - इन स्वरों से मधुवंती का स्वरुप दिखता है और गंधार कोमल से षड्ज पर आते समय गंधार कोमल को दीर्घ रख कर मींड के साथ षड्ज पर आते हैं जिसमें कौंस का रागांग झलकता है।
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मधमाद सारंग
राग मधुमाद सारंग को मधमाद सारंग या मध्यमादी सारंग भी कहा जाता है। इस राग के स्वर राग बृंदावनी सारंग के ही सामान है परन्तु इस राग में सिर्फ कोमल निषाद का प्रयोग किया जाता है। इस राग के पूर्वांग में पंचम-रिषभ (प-रे) तथा उत्तरांग में निषाद-पंचम (नि१-प) की संगती राग वाचक है।
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बैरागी
राग बैरागी को पंडित रवि शंकर जी ने प्रचलित किया है। यह बहुत ही कर्णप्रिय राग है और भक्ति रस से परिपूर्ण है। इस राग में किसी भी तरह का बन्धन नही है, इसलिये यह तीनों सप्तकों में उन्मुक्त रूप से गाया जा सकता है। यह राग भैरव थाट के अंतर्गत आता है। यह स्वर संगतियाँ राग बैरागी का रूप दर्शाती हैं -
,नि१ सा रे१ म प नि१ ; म नि१ प ; नि१ प म प म रे१ ; ,नि१ सा ; रे१ म प नि१ प ; म प नि१ नि१ सा' ; नि१ प नि१ सा' रे१' सा' ; रे१' सा' नि१ रे१' सा' नि१ प म ; प म रे१ सा ; ,नि१ सा रे१ सा ;
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बैरागी तोडी
राग बैरागी तोडी को पंडित रवि शंकर जी ने प्रचलित किया है। गाने में कठिन लेकिन मधुर है। राग बैरागी के मध्यम की जगह कोमल गंधार लेने से राग बैरागी तोड़ी अस्तित्व में आता है। यह राग तोड़ी थाट के अंतर्गत आता है। इसका चलन राग तोडी के समान है इसलिये इसमें गंधार अति कोमल लिया जाता है। इस राग की प्रकृति गंभीर है और इसका विस्तार तीनों सप्तकों में किया जा सकता है। यह स्वर संगतियाँ राग बैरागी तोडी का रूप दर्शाती हैं -
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