मणिपुरी नृत्य
मणिपुरी नृत्य भारत के अन्य नृत्य रूपों से भिन्न है। इसमें शरीर धीमी गति से चलता है, सांकेतिक भव्यता और मनमोहक गति से भुजाएँ अंगुलियों तक प्रवाहित होती हैं। यह नृत्य रूप 18वीं शताब्दी में वैष्णव सम्प्रदाय के साथ विकसित हुआ जो इसके शुरूआती रीति रिवाज और जादुई नृत्य रूपों में से बना है। विष्णु पुराण, भागवत पुराण तथा गीतगोविन्द की रचनाओं से आई विषयवस्तुएँ इसमें प्रमुख रूप से उपयोग की जाती हैं।
मणिपुर की मीतई जनजाति की दंतकथाओं के अनुसार जब ईश्वर ने पृथ्वी का सृजन किया तब यह एक पिंड के समान थी। सात लैनूराह ने इस नव निर्मित गोलार्ध पर नृत्य किया, अपने पैरों से इसे मजबूत और चिकना बनाने के लिए इसे कोमलता से दबाया। यह मीतई जागोई का उद्भव है। आज के समय तक जब मणिपुरी लोग नृत्य करते हैं वे कदम तेजी से नहीं रखते बल्कि अपने पैरों को भूमि पर कोमलता और मृदुता के साथ रखते हैं। मूल भ्रांति और कहानियाँ अभी भी मीतई के पुजारियों या माइबिस द्वारा माइबी के रूप में सुनाई जाती हैं जो मणिपुरी की जड़ हैं।
मणिपुरी नृत्य भारत के उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित राज्य मणिपुर में उत्पन्न हुआ । यह भारतीय शास्त्रीय नृत्यों की विभिन्न शैलियों में से प्रमुख नृत्य है । इसकी भौगोलिक स्थिति के कारण मणिपुर के लोग बाहरी प्रभाव से बचे रहे हैं और इसी कारण यह प्रदेश अपनी विशिष्ट परम्परागत संस्कृति को बनाये रखने में समर्थ है ।
मणिपुरी नृत्य का उद्भव प्राचीन समय से माना जा सकता है, जो लिपिबद्ध किये गये इतिहास से भी परे है । मणिपुर में नृत्य धार्मिक और परम्परागत उत्सवों के साथ जुड़ा हुआ है । यहां शिव और पार्वती के नृत्यों तथा अन्य देवी-देवताओं, जिन्होंने सृष्टि की रचना की थी, की दंतकथाओं के संदर्भ मिलते हैं ।
लाई हारोबा मुख्य उत्सवों में से एक है और आज भी मणिपुर में प्रस्तुत किया जाता है, पूर्व वैष्णव काल से इसका उद्भव हुआ था । लाई हारोबा नृत्य का प्राचीन रूप है, जो मणिपुर में सभी शैली के नृत्य के रूपों का आधार है । इसका शाब्दिक अर्थ है- देवताओं का आमोद-प्रमोद । यह नृत्य तथा गीत के एक अनुष्ठानिक अर्पण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है । मायबा और मायबी (पुजारी और पुजारिनें) मुख्य अनुष्ठानक होते हैं, जो सृष्टि की रचना की विषय-वस्तु को दोबारा अभिनीत करते हैं ।
15वीं सदी ईसवी सन् मे वैष्णव काल के आगमन के साथ क्रमश: राधा और कृष्ण के जीवन की घटनाओं पर आधारित रचनायें प्रस्तुत की गयीं । ऐसा राजा भाग्यचंद्र के शासन काल में हुआ, इसी समय मणिपुर के प्रसिद्ध रास-लीला नृत्यों का प्रवर्तन हुआ था । यह कहा जाता है कि 18वीं सदी के इस दार्शनिक राजा ने एक स्वप्न में इस सम्पूर्ण नृत्य की उसकी विशिष्ट वेशभूषा और संगीत सहित कल्पना की थी । क्रमिक शासकों के तहत् नई लीलाओं, तालों और रागात्मक रचनाओं की प्रस्तुती की गयी ।
मणिपुरी नृत्य का एक विस्तृत रंगपटल होता है, तथापि रास, संकीर्तन और थंग-ता इसके बहुत प्रसिद्ध रूप हैं । यहां पांच मुख्य रास नृत्य हैं, जिनमें से चार का सम्बन्ध विशिष्ट ऋृतुओं से है । जबकि पांचवां साल में किसी भी समय प्रस्तुत किया जा सकता है । मणिपुरी रास में राधा, कृष्ण और गोपियां मुख्य पात्र होते हैं ।
विषय-वस्तु बहुधा राधा और गोपियों की कृष्ण से अलग होने की व्यथा को दर्शाती है । रासलीला नृत्यों में परेंग या शुद्ध नृत्य क्रम प्रस्तुत किये जाते हैं । इसमें निर्दिष्ट लयात्मक भंगिमाओं और शरीर की गतिविधियों का अनुसरण किया जाता है, जो परम्परागत रूप से अनुसरणीय होते हैं । रास की वेशभूषा में प्रचुर मात्रा में कशीदा किया गया एक सख्त घाघरा शामिल होता है, जो पैरों पर फैला होता है ।
इसके ऊपर महीन मलमल का एक घाघरा पहना जाता है । शरीर का ऊपरी भाग गहरे रंग के मखमल के ब्लाऊज से ढका रहता है और एक परम्परागत घूँघट एक विशेष केश-सज्जा के ऊपर पहना जाता है, जो मनोहारी रूप से चेहरे के ऊपर गिरा होता है । कृष्ण को पीली धोती, गहरे मखमल की जाकेट और मोरपंखों का एक मुकुट पहनाया जाता है । इनके अलंकरण उत्कृष्ट होते हैं और उनकी बनावट प्रदेश की विशष्टिता लिये होती है ।
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