कथकली नृत्य
कथकली का रंगमंच ज़मीन से ऊपर उठा हुआ एक चौकोर तख्त होता है। इसे 'रंगवेदी' या 'कलियरंगु' कहते हैं। कथकली की प्रस्तुति रात में होने के कारण प्रकाश के लिए भद्रदीप (आट्टविळक्कु) जलाया जाता है। कथकली के प्रारंभ में कतिपय आचार - अनुष्ठान किये जाते हैं। वे हैं - केलिकोट्टु, अरंगुकेलि, तोडयम्, वंदनश्लोक, पुरप्पाड, मंजुतल (मेलप्पदम)। मंजुतर के पश्चात् नाट्य प्रस्तुति होती है और पद्य पढकर कथा का अभिनय किया जाता है। धनाशि नाम के अनुष्ठान के साथ कथकली का समापन होता है।
केरल कई परम्परागत नृत्य तथा नृत्य–नाटक शैलियों का घर है । इनमें सबसे विशिष्ट है- कथकली नृत्य ।
आज कथकली एक प्रचलित नृत्य रूप है । इसे तुलनात्मक रूप से हाल ही के समय में उद्भव हुआ माना जाता है । हालांकि यह एक कला है, जो प्राचीन काल में दक्षिणी प्रदेशों में प्रचलित बहुत से सामाजिक और धार्मिक रंगमंचीय कला रूपों से उत्पन्न हुई है । चाकियारकुत्त्, कूडियाट्टम, कृष्णानाट्टम और रामानाट्टम- केरल की कुछ अनुष्ठानिक निष्पादन कलाएं हैं, जिनका कथकली के प्रारूप और तकनीक पर सीधा प्रभाव है । एक दंतकथा के अनुसार जब कालीकट के जमोरिन ने अपने कृष्णानाट्टम कार्यक्रम करने वाले समूह को त्रावनकोर भेजने से मना कर दिया, तो कोट्टाराक्कारा का राजा इतना क्रुद्ध हो गया कि उसे रामानाट्टम की रचना करने की प्रेरणा हो आई ।
केरल के मंदिरों के शिल्पों और लगभग 16वीं शताब्दी के मट्टानचेरी मंदिर के भित्तिचित्रों में वर्गाकार तथा आयताकार मौलिक मुद्राओं को प्रदर्शित करते नृत्य के दृश्य देखे जा सकते हैं, जो कथकली की विशेषताओं को प्रदर्शित करते हैं । शरीर की मुद्राओं और नृत्य कला सम्बंधी नमूनों के लिए कथकली नृत्य शैली केरल की प्राचीन युद्ध सम्बंधी कलाओं की ऋृणी है ।
कथकली नृत्य, संगीत और अभिनय का मिश्रण है और इसमें अधिकतर भारतीय महाकाव्यों से ली गई कथाओं का नाटकीकरण किया जाता है । यह शैलीबद्ध कला रूप है, इसमें अभिनय के चार पहलू- अंगिका, अहार्य, वाचिका, सात्विका और नृत्त, नृत्य तथा नाट्य पहलुओं का उत्कृष्ट सम्मिश्रण है । नर्तक अपने भावों को विधिबद्ध हस्तमुद्राओं और चेहरे के भावों से अभिव्यक्त करता है और इसके पश्चात् (पद्म) पद्यात्मक भाग होता है, जिन्हें गाया जाता है । कथकली नृत्य शैली अपनी मूलपाठ-विषयक स्वीकृति बलराम भरतम् और हस्तलक्षणा दीपिका से प्राप्त करती है ।
आट्टाक्कथा या कहानियों को महाकाव्यों तथा पौराणिक कथाओं से चुना जाता है और इन्हें उच्च स्तरीय संस्कृत पद्य रूप में मलयालम् भाषा में लिखा जाता है । कथकली साहित्य के विशाल भण्डार में मलयालम् भाषा के बहुत से लेखकों ने अपना योगदान दिया है ।
केरल का यह नृत्य 300 साल पुराना है और दुनियाभर में मशहूर है। नृत्य विधा के साथ ही इसका आकर्षक मेकअप लोगों को खूब लुभाता है। इस नृत्य में बैले, ओपेरा, मास्क और मूक-अभिनय का मिश्रित रूप देखा जा सकता है। माना जाता है इसकी उत्पत्ति कूटियट्टम, कृष्णनअट्टम और कलरिप्पयट्टु जैसी अभिनय कलाओं से हुई है। कथकली में भारतीय महाकाव्य और पुराणों के आख्यानों और कथाओं का प्रदर्शन किया जाता है। शाम होने के बाद केरल के मंदिरों में प्रस्तुत किए जाने वाले कथकली की उद्घोषणा केलिकोट्टु अथवा ढोल पीटकर और चेंगिला (गोंग) के वादन के साथ की जाती है। कथकली का रंगमंच जमीन से ऊपर उठा हुआ एक चौकोर तख्त होता है, जिसे ‘कलियरंगु’ कहते हैं। शाम को कथकली आयोजित करने के लिए दीए जलाए जाते हैं जिसको ‘आट्टविलक्कु’ कहते हैं।
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कथकली नृत्य
कथकली नृत्य केरल के दक्षिण-पश्चिमी राज्य का एक समृद्ध और फलने-फूलने वाला शास्त्रीय नृत्य तथा यहाँ की परम्परा है। 'कथकली' का अर्थ है- 'एक कथा का नाटक' या 'एक नृत्य नाटिका'। 'कथा' का अर्थ है- 'कहानी'। इस नृत्य में अभिनेतारामायण और महाभारत के महाग्रंथों और पुराणों से लिए गए चरित्रों का अभिनय करते हैं। यह अत्यंत रंग-बिरंगा नृत्य है। इसके नर्तक उभरे हुए परिधानों, फूलदार दुपट्टों, आभूषणों और मुकुट से सजे होते हैं। वे उन विभिन्न भूमिकाओं को चित्रित करने के लिए सांकेतिक रूप से विशिष्ट प्रकार का रूप धरते हैं, जो वैयक्तिक चरित्र के बजाए उस चरित्र के अधिक नज़दीक होते हैं।
कथा नृत्य
भारतीय नृत्य रूपों में अद्वितीय कथकली नृत्य केरल का शास्त्रीय नृत्य नाटक है। ज्वलंत और समृद्व विशेषताओं जैसे हाथों के साथ गाना, भाव में प्राकृतिक और प्रभावशाली, हलचल में सुंदर और तालबद्व, नृत्य में मनमोहक और सबसे ख़ास कल्पना के स्तर पर मनभावन के कारण भारतीय नृत्य कलाओं में कथकली को उच्च दर्जा प्राप्त है। विषयों के आधार पर कथकली प्राचीन पुराणों की कथाओं पर आधारित है। अगर इसकी पुरातन वेशभूषा, अजीबो-गरीब रूप सज्जा ओर भव्यआभूषणों को देखें तो हम पायेंगे कि कथकली भारत का एकमात्र ऐसा नृत्य है, जो अपनी मर्दाना पहलू की मौलिक ताकत पर संरक्षित है।
इतिहास
कथकली के बारे मे यह माना जाता है कि यह 300 या 400 साल पुरानी कला नहीं हैं, इसकी वास्तविक उत्पत्ति 1500 साल पहले से है। कथकली विकास की एक लंबी प्रक्रिया से गुजरी है और इसकी इस यात्रा ने केरल में कई अन्य मिश्रित कलाओं के जन्म और विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है। कथकली को आर्यन और द्रविड सभ्यता के प्रतीक के रूप में भी देखा जा सकता है, जिसने अनुष्ठान और संस्कृतियों को समझते हुए उनके साथ मिलकर इन सभ्यताओं से नाटक और नृत्य की इस कला को उधार लिया। कथकली के इतिहास के पुनर्निर्माण में यह बात ध्यान रखना आवश्यक है कि व्यवहारिक रूप से सभी प्रकार के औपचारिक नृत्य, नाटक और नृत्य नाटक की सभी कलाओं को अस्तित्व में लाने का श्रेय कथकली को ही जाता है। एक अध्ययन के दौरान यह साबित भी हो चुका है कि केरल के सभी प्रारंभिक नृत्य और नाटक जैसे- 'चकइरकोथू' और 'कोडियाट्टम', कई धार्मिक नृत्य जो भगवती पंथ से संबंधित है जैसे- 'मुडियाअट्टू', 'थियाट्टम' और 'थेयाम', सामाजिक, धार्मिक और वैवाहित नृत्य जैसे- 'सस्त्राकली' और 'इजामट्क्कली' और बाद में विकसित नृत्य जैसे- 'कृष्णाअट्टम' और 'रामाअट्टम' आदि कथकली की ही देन हैं। कथकली कला में कई नृत्य और नाटकों की विशेषताओं को शामिल किया जा सकता है और यह वर्णन करने में भी आसान है कि कथकली इन रूपों के प्रारंभ में ही विकसित हो चुकी थी।
मूकाभिनय सम्पूर्ण कला
कथकली अभिनय, 'नृत्य' (नाच) और 'गीता' (संगीत) तीन कलाओं से मिलकर बनी एक संपूर्ण कला है। यह एक मूकाभिनय है, जिसमें अभिनेता बोलता एवं गाता नहीं है, लेकिन बेहद संवेदनशील माध्यमों जैसे- हाथ के इशारे और चेहरे की भावनाओं के सहारे अपनी भावनाओं की सुगम अभिव्यक्ति देता है। कथकली नाटकीय और नृत्य कला दोनों है। परंतु मुख्य तौर पर यह नाटक है। यह साधारण नाटकीय कला से कहीं ज्यादा अच्छा प्रस्तुतीकरण है। यह यथार्थवादी कला नहीं है, लेकिन अपनी कल्पनाशीलता के चलते यह 'भरत नाट्यशास्त्र' के समानांनतर है। प्रत्येक भावना आदर्शवादी तरीके से गहन जीवंतता के साथ चेहरे के भावों द्वारा व्यक्त की जाती है तथा यह शब्दों के अभाव की भी पूर्ति करती है। चेहरे पर व्यक्त प्रत्येक अभिव्यक्ति नृत्य की लय और संगीत की ताल के साथ छायांकित होती है।
नृत्य में अभिनय केवल मानवीय हृदय की भावनाओं की व्यक्तिपरक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति, चित्र, जीव और आसपास की वस्तुओं की संबंधों के अनुसार उद्वेशयपरक अभिव्यक्ति है। इसमें वास्तव में कला के माध्यम से प्रतिरूपण शामिल है और कथकली का सचित्र वैभव और काव्य गौरव गाथा का प्रस्तुतीकरण भी शामिल है। कथकली में संगीत एक महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य तत्व है। इसमें ऑर्केस्ट्रा दो मुखर संगीतकारों द्वारा बनाया जाता है, इनमें से एक 'चेंगला' नामक यंत्र के साथ गीत की तैयारी करता है और दूसरा 'झांझ' और 'मंजीरा' के साथ मिलकर 'इलाथम' नामक जोड़ी की रचना करता है, जिसमें चेन्दा और मदालम भी प्रमुख स्थान रखते हैं। 'चेन्दा' एक बेलनाकार ढोल होता है, जो उंची लेकिन मीठी आवाज निकालता है, जबकि 'मदालम' मृदंग का बडा रूप होता है।
गायन शैली
कथकली संगीत की गायन शैली को एक विशिष्ट सोपान शैली में विकसित किया गया है, जिसकी गति बहुत धीमी होती है। इसमें न ही राग और राग अलापना है और न ही निरावल और सरावल प्रकार से उनका विस्तारण करना है। रागों की व्यापक सुविधाओं के संरक्षण और ताल का सावधानी से पालन करते हुए वे अभिनेता को अभिनय करने की पूरी गुजांइश छोड़ते हुए गाना गाते हैं। कथकली में दो मुख्य संगीतकार होते हैं, जिसमें मुख्य संगीतकार को 'पोनानी' और दूसरे को 'सिनकिडी' के नाम से जाना जाता है। कथकली गायन उच्च काव्य उच्चारण में से है, जिन्हें मलयालम साहित्य के रत्नों में गिना जाता है।
'मुद्रास' अर्थात 'हाथ के इशारे' को शाब्दिक भाषा के विकल्प के तौर पर प्रयोग किया जाता है, लेकिन इससे ज्यादा इसे इस्तेमाल नहीं किया जाता, न ही नाटक में और न ही नृत्य में। चेन्दा के साथ संगत करने के लिए मदालम, चेंगला और इथालम का प्रयोग संगीतकारों के द्वारा किया जाता है, इसके साथ अभिनेता के द्वारा चेहरे के हाव भाव, शारीरिक व्यवहार, अंगुलियों की भाषा और हाथों के इशारों के माध्यम से संगीत का अनुवाद भी किया जाता है। जैसे ही गाने की शुरूआत होती है, अभिनेता अपने मूकाभिनय के साथ और अपने इशारों के माध्यम से ऐसी अभिव्यक्ति करता है, जिससे दर्शक सपनों की दुनिया में अपने आप को महसूस करता है। अभिनेता गाने के शब्दों और ताल के साथ नाटक और नृत्य करता है। मुद्रास कला नृत्य और अभिनय का एक अभिन्न हिस्सा है। कथकली के अधिकांश चरित्र पौराणिक होते हैं, इसलिए उनकी रूप सज्जा यथार्थवादी आधार पर नहीं होती है। इन सभी में रूप सज्जा, पोशाक और शृंगार के पांच विभिन्न प्रकार तय किए हैं, जो उनके वास्तविक चरित्र और गुणों का वर्णन करते हैं।
विशेषताएँ
नृत्य में मानव, देवता समान, दैत्य आदि को शानदार वेशभूषा और परिधानों के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है। इस नृत्य का सबसे अधिक प्रभावशाली भाग यह है कि इसके चरित्र कभी बोलते नहीं हैं, केवल उनके हाथों के हाव भाव की उच्च विकसित भाषा तथा चेहरे की अभिव्यक्ति होती है, जो इस नाटिका के पाठ्य को दर्शकों के सामने प्रदर्शित करती है। उनके चेहरे के छोटे और बड़े हाव भाव, भंवों की गति, नेत्रों का संचलन, गालों, नाक और ठोड़ी की अभिव्यक्ति पर बारीकी से काम किया जाता है तथा एक कथकली अभिनेता नर्तक द्वारा विभिन्न भावनाओं को प्रकट किया जाता है। इसमें अधिकांशत: पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते हैं, जबकि अब कुछ समय से महिलाओं को कथकली में शामिल किया जाने लगा है।
वर्तमान समय का कथकली एक नृत्य नाटिका की परम्परा है, जो केरल के नाट्य कर्म की उच्च विशिष्ट शैली की परम्परा के साथ शताब्दियों पहले विकसित हुआ था, विशेष रूप से कुडियाट्टम। पारम्परिक रीति रिवाज जैसे थेयाम, मुडियाट्टम और केरल की मार्शल कलाएँ नृत्य को वर्तमान स्वरूप में लाने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।